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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा पोषक स्वरूप गढ़कर या काट-छाँटकर सामने रखने लगती है। तव हम उसे सच्ची कवि-कल्पना कह सकते हैं। यों ही सिरपच्ची करके–विनां किसी भाव में मग्न हुए कुछ अनोखे रूप खड़े करना या कुछ को कुछ कहने लगना या तो बावलापन है, या दिमागी कसरत; सचे कवि की कल्पना नहीं । वास्तव के अतिरिक्त या वास्तव के स्थान पर जो रूप सामने लाए गए हों उनके संबंध में यह देखना चाहिए कि वे किसी भाव की उमंग में उस भाव को सँभालनेवाले या बढ़ानेवाले होकर आ खड़े हुए हैं। या यों ही तमाशा दिखाने के लिये कुतूहल उत्पन्न करने के लिये जबरदस्ती पकड़ कर लाए गए हैं। यदि ऐसे रूपों की तह में उनके प्रवर्तक या प्रेषक भाव का पता लग जाय तो समझिए कि कवि के हृदय का पता लग गया और वे रूप हृदय-प्रेरित हुए। अँगरेज कवि कालरिज ने जिसने कवि-कल्पना पर अच्छा विवेचन किया हैं अपनी एक कविता* में ऐसे रूपावरण को आनंद-स्वरूप आत्मा से निकला हुआ कहा है, जिसके प्रभाव से जीवन में रोचकता रहती हैं। जब तक यह रूपावरण (कल्पना का) जीवन में साथ लगा चलता है तब तक दुःख की परिस्थिति में भी आनंद-स्वप्न नहीं टूटता। पर धीरे धीरे यह दिव्य आवरण हट जाता है और मन गिरने लगता है। भावोद्रेक और कल्पना में इतना घनिष्ठ संबंध है कि एक काव्य-मीमांसक ने दोनों को एक ही कहना ठीक समझकर कह दिया है-“कल्पना आनंद हैं ( Imagination is joy ) ।

  • Dejection Ode., 4th April 1802. G. W. Mackael's Lectures on Poetry.