पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३६४

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अप्रस्तुत रूप-विधान जैसा ऊपर कहा गया है, जिसे निर्माण करनेवाली—सृष्टि खड़ी करनेवाली-कल्पना कहते हैं उसकी पूर्णता किसी एक प्रस्तुत वस्तु के लिये कोई दूसरी अग्रस्तुत वस्तु–जो कि प्रायः कांव-परंपरा में प्रसिद्ध हुआ करती है—रख देने में उतनी नहीं दिखाई पड़ती जितनी किसी एक पूर्ण प्रसंग के मेल का कोई दूसरा प्रसंग-जिसमें अनेक प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों की नवीन योजना रहती है—रखने में देखी जाती है। सूरदास जी ने कल्पना की इस पूर्णता का परिचय जगह जगह दिया है। कबीर, जायसी आदि कुछ रहस्यवादी कवियों ने इस जीवन का मार्मिक स्वरूप तथा परोक्ष जगत् की कुछ बुंधली सी झलक दिखाने के लिये इसी अन्योक्ति की पद्धति का अवलंबन किया है; जैसे हंसा प्यारे ! सरवर तजि कहाँ जाय ? जेहि सरवर विच मोती चुनते, बहुविधि केलि काय ।। रख ताल, पुरइनि जल छोड़े, कमल गयो कुँभिलाय ।। कह कभीर जो अब की बिछुरै, बहुरि मिलै कब झाये ।। रहस्यवादी कवियों के समान भक्त सूर की कल्पना भी कभी । कभी इस लोक का अतिक्रमण करके आदर्श लोक की ओर संकेत करने लगती है; जैसे बकई री ! चलि चरन-सरोवर जहाँ न प्रेम-वियोग । निसि दिन राम राम की वर्षा, भय कुज नहिं दुख सोग ।। जहाँ सनक से मीन, हंस शिव, मुनि-जन नख-रवि-प्रभा-प्रकास । प्रफुलित कमल, निमिष नहिं सप्ति डर, गुंजत निगम सुवास । जेहि सर सुभग मुक्ति मुक्ता-फल, सुकृत अमृत रस पीजै । सो सर छाँड़ि कुबुद्धि विहंगम ! इहाँ कहा रहि कीजै १ ।। पर एक व्यक्तिवादी सगुणोपासक कवि की उक्ति होने के