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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा कारण इस चित्र में वह रहस्यमयी अव्यक्तता या धुंधलापन नहीं हैं। कवि अपनी भावना को स्पष्ट और अधिक व्यक्त करने के लिये जगह जगह अाकुले दिखाई पड़ता है । इसी से अन्योक्ति का मार्ग छोड़ जगह जगह उसने रूपक का आश्रय लिया है। इसी अन्योक्ति का दीनदयाल गिरिजी ने अच्छा निर्वाह किया है चल चकई ! वा सर विषय जहँ नहिं वैन बिछोह । रहत एकरस दिवस ही सुहृद हंस-संदोह । सुहृद हंस-संदोह को अरु द्रोह न जाके । भोगत सुख अंघोह, मोह-दुख होय न ताके । बरनै दीनदयाल भाग्य विनु जाय न सकई । पिय-मिलाप नित रहै ताहि सर चल तू चकई ।। १कहने की आवश्यकता नहीं कि ऊपर जो बात कही गई है वह ऐसी वस्तुओं के संबंध में कही गई है जिनका वर्णन कवि किसी ‘भाव में मग्न होकर, उसी भाव में मग्न करने के लिये, करता हैजैसे, नायिका का वर्णन, प्राकृतिक शोभा का वर्णन, वीर कर्म का वर्णन इत्यादि इत्यादि । जहाँ वस्तुएँ ऐसी होती हैं कि उनके संबंध में अलग क ई वेगयुक्त भाव ( जैसे रति, भय, हर्ष, घृणा, श्रद्धा इत्यादि ) नहीं होता, केवल उनके स्वप; गुण, क्रिया आदि का ही गोचर स्पष्टीकरण करना या अधिकता न्यूनता की ही भावना तीव्र करना अपेक्षित होता है-उनके द्वारा किसी भाव की अनुभूति की वृद्धि करना नहीं-वहाँ आकृति, गुण आदि का निरूपण और आधिक्य या न्यूनता का बोध करानेवाली सदृश वस्तुओं से ही प्रयोजन रहता है। हाथियों के डीलडौल, तलवार | १ [ देखिए जायसी-ग्रंथावली, भूमिका, पृष्ठ १३९ से।]