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रस-मीमांसा

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३५८ रस-मीमांसा । यद्यपि साहित्य के प्राचार्यों ने साम्य से कहे हुए विरोधी रस या भाव को ( विभाव आदि को भी ) दोषाधायक नहीं माना है, पर इस प्रकार के आरोपों से रस की प्रतीति में व्याघात अवश्य पड़ता है, वाग्वैदग्ध्य द्वारा मनोरंजन चाहे कुछ हो जाय । काव्य में बिंब-स्थापना ( Imagery ) प्रधान वस्तु है। वाल्मीकि, कालिदास आदि प्राचीन कवियों में यह पूर्णता को प्राप्त है। अँगरेजी कवि शेती इसके लिये प्रसिद्ध हैं । भाषा के दो पक्ष होते हैं-एक सांकेतिक (Symbolic ) और दूसरा विवाधायक ( Prese?ltative )। एक में तो नियत संकेत द्वारा अर्थ-बोध मात्र है। जाता है, दूसरे में वस्तु का बिंब या चित्र अंतःकरण में उपस्थिन होता है। वर्णनों में सच्चे कवि द्वितीय पज्ञ का अवलंबन करने हैं। वे वर्णन इस ढंग पर करते हैं कि चिंच-ग्रहण हो, अनः रसात्मक वर्णनों में यह आवश्यक है कि ऐसी वस्तुओं का विंब-ग्रहण कराया जाय, ऐसी वस्तुएँ सामने लाई जायँ, जो प्रस्तुत रस के अनुकूल हो, उसकी प्रतीति में बाधक न हों। सादृश्य और साधयं के आधार पर आरोप द्वारा भी जो वस्तुएँ लाई जायँ वे भी ऐसी ही होनी चाहिए। वीररस की अनुभूति के समय कुच, तरिवन, सिंदूर आदि सामने लाना या श्रृंगाररस की अनुभूति के अवसर पर मस्त हाथी, भाले, बरछे, सामने रखना रसानुभूति में सहायक कदापि नहीं । 'हम पहले कह आए हैं कि भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के रूप, गुण और क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराने में कभी कभी सहायक होनेवाली युक्ति ही अलंकार है। अतः अलंकारों की परीक्षा इसी दृष्टि से करनी चाहिए कि वे कहाँ तक उक्त प्रकार से सहायक हैं। यदि किसी वर्णन में उनसे इस प्रकार की कोई सहायता नहीं पहुँचती है, तो वे काव्यालंकार नहीं, भार | १ [ मिलाइए गोस्वामी तुलसीदास, पृष्ठ १६१ से । ]