पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३७४

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अप्रस्तुत रूप-विधान पीला होना नहीं। दूसरा अर्थ अलबत सीधा और ठीक हुँचता है, पर अन्वय इस प्रकार खींचतान कर करना पड़ता है-'गाढ़ी पीर हिय केसर बरन'। तीसरा अर्थ यदि लेते हैं तो ‘पीर का एक असाधारण विशेषण ‘केसर-बरन' रखना पड़ता है। इस दशा में केसर-वर्ण’ का लक्षणा से अर्थ करना होगा 'केसर-वर्ण करनेवाली', 'पीला करनेवाली और पीड़ा का अतिशय लक्षणा का प्रयोजन होगा। पर योरपीय साहित्य में इस प्रकार की शैली अलंकार-रूप से स्वीकृत है और हाईपेलेज ( HyTillage ) कहलाती है। इसमें कोई गुण प्रकृत गुणी से हटाकर दूसरी वस्तु में आरोपित कर दिया जाता है; जैसे यहाँ पीलेपन का गुण 'हृदय' से हटाकर ‘पीड़ा' पर आरोपित किया गया है । | एक उदाहरण और लीजिए-‘जस भुईं दहि असाढ़ पलुहाई। इस वाक्य में ‘पलुहाई’ की संगति के लिये ‘भुइँ' शब्द का अर्थ उस पर के घास पौधे अर्थात् अाधार के स्थान पर आधेय लक्षणा से लेना पड़ता है। बोलचाल में भी इस प्रकार के रूढ़ प्रयोग आते हैं, जैसे इन दोनों घरों में झगड़ा है। योरपीय अलंकार-शास्त्र में आधेय के स्थान पर आधार के कथन की प्रणाली को मेटानिमी ( Metonymy ) अलंकार कहेंगे । इसी प्रकार अंगी के स्थान पर अंग, व्यक्ति के स्थान पर जाति आदि का लाक्षणिक प्रयोग सिनेकडोक (Synecdoche ) अलंकार कहा जाता है । सारांश यह कि चमत्कार-प्रणालियाँ बहुत सी हो सकती हैं। 'रूप, गुण और क्रिया तीनों का अनुभव तीव्र करने के लिये अधिकतर सादृश्य-मूलक उपमा आदि अलंकारों का ही प्रयोग होता है। रूप का अनुभव प्रधानतः चार प्रकार का होता हैअनुरंजक, भयावह, आश्चर्यकारक या घृणोत्पादक । इस प्रकार के १ [ मिलाइए गोस्वामी तुलसीदास, ‘पृष्ठ १६५ से ।]