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रस-मीमांसा

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३६३ रस-मीमांसा अनुभव में सहायक होने के लिये आवश्यक यह है कि प्रस्तुत वस्तु और आलंकारिक वस्तु में विंब-श्रतिबिंब भाव हो अर्थात् अप्रस्तुत ( कवि द्वारा लाई हुई ) वस्तु प्रस्तुत वस्तु से रूप-रंग आदि में मिलती-जुलती हो और उससे उसी भाब के उत्पन्न होने की संभावना हो जो प्रस्तुत वस्तु से उत्पन्न हो रहा हो। | जहाँ वस्तु या व्यापार अगोचर होता है, वहाँ अलंकार उसके अनुभव में सहायता गोचर रूप प्रदान करके करता है; अर्थात् वह पहले गोचर-प्रत्यक्षीकरण करके बोध-वृत्ति की कुछ सहायता करता है, तब फिर रागात्मिका वृत्ति को उत्तेजित करता है। जैसे, यदि कोई आनेवाली विपत्ति या अनिष्ट का कुछ भी ध्यान न करके अपने रंग में मस्त रहता हो और उसको देखकर कहे कि- 'चरै हरित तृन वलि-पसु जैसे' तो इस कथन से उसकी दशा का प्रत्यक्षीकरण कुछ अधिक हो जायगा जिससे उसमें भय का संचार पहले से कुछ अधिक हो सकता है। | क्रिया और गुण का अनुभव तीव्र कराने के लिये प्रस्तुत अप्रस्तुत वस्तु के बीच या तो ‘अनुगामी ( एक ही ) धर्म होता है, या ‘बस्तु-प्रतिवस्तु' या उपचरित । सीधी भाषा में यों कह सकते हैं कि अलंकार के लिये लाई हुई वस्तु और प्रसंग-प्राप्त वस्तु का धर्म या तो एक ही होता है, या अलग अलग कहे जाने पर भी * दोनों के धर्म समान होते हैं; अथवा एक के धर्म का उपचार दूसरे पर किया जाता है; जैसे, उसका हृदय पत्थर के समान है। | अब गुण का अनुभव तीव्र करने में सहायक अलंकार पर आइए ' और देखिए कि इस ‘व्यतिरेक' की सहायता से संतों का स्वभाव किस सफाई के साथ औरों से अलग करके दिखाया गया है संत-हृदय नवनीत-समाना । कहा कविन पै कहइ न जाना ॥ निज परिताप द्रवें नवनीता । पर-दुख द्रवें सुसंत पुनीता ।।