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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा अब भ्रम का एक ऐसा ही उदाहरण लीजिए। सीताजी अपने जलने के लिये अशोक से अंगार माँग रहीं थीं। इतने में हनुमान् ने पेड़ के ऊपर से राम की ‘मनोहर मुद्रिका गिराई और | जानि असोक-अँगार सीय हरषि उठि कर गह्यो । इसी प्रकार जहाँ रामचरितमानस के उत्तरकांड में अयोध्या की विभूति का वर्णन है, वहाँ कहा गया है मनि मुख में लि डारि कपि देहीं । | इन दोनों उदाहरणों में भ्रम' अलंकार नहीं है। अलंकार में भ्रम के विषय की विशेषता होती है, भ्रांत की नहीं । भ्रांत की विशेषता में तो पागलों का भ्रम भी अलंकार हो जायगा । सीता का जो भ्रम है, वह विरह की विह्वलता के कारण और वंदरों का जो भ्रम है, वह पशुत्व के कारण । इस प्रकार का भ्रम अलंकार नहीं, यह बात आचार्यों ने स्पष्ट कह दी हैमर्मप्रहारकृत-चित्तविक्षेप-विरहादिकृतोन्मादादिजन्यभ्रान्तेश्च नालंकारत्वम् । -उद्योतक्रार ।। संदेह के संबंध में भी यही बात समझिए जो ऊपर कही गई है। तीनों में सादृश्य आवश्यक है। संदेह तो अलंकार तभी होगा जव उसको लाने का मुख्य उद्देश्य रूप, गुण, क्रिया का उत्कर्ष (अपकर्ष भी ) सूचित करना होगा। ऐसा संदेह वास्तविक भी हो सकता है, पर वहाँ अलंकारत्व कुछ दबा सा रहेगा। जैसे, ‘की मैनाक कि खग-पति होई में जो संदेह है, वह कवि के प्रबंधकौशल के कारण वास्तविक भी है तथा आकार की दीर्घता और वेग की तीव्रता भी सूचित करता है। पर नीचे लिखा उदाहरण यदि लीजिए तो उसमें कुछ भी अलंकारत्व नहीं है की तुम हरिदासन महँ कोई । मोरे हृदय प्रीति अति हाई ।। की तुम राम दीन-अनुरागी | श्राए मोहिं करन बड़-भागीं ॥