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रस-मीमांसा

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रस मीमांसा कार ने दोषों से युक्त होते हुए भी इसे ध्वनि के कारण उत्तम काव्य स्वीकृत किया है। इसलिये लक्षण में अव्याप्ति हैं। वरूप-लक्षण में विशेषणत्व का समावेश अनावश्यक है। किसी दोप के कारण रत्न को रत्न कहना थोड़े ही छोड़ देते हैं। 'शब्दार्थों का विशेषण ‘सगुण भी असमीचीन है, क्योंकि ‘गुण' का संबंध रस से हैं, शव्द और अर्थ से नहीं जैसा कि लक्षणकार ने स्वयं स्वीकार किया है। यह कहना भी ठीक नहीं कि शब्द और अर्थं से, जो रस के व्यंजक हुआ करते हैं, गुणों का अप्रत्यक्ष संबंध ( उपचार ) होता है। शब्द और अर्थ में रस नहीं होता, इसलिये उनमें गुण भी नहीं होते। रस और गुण का संबंध अन्वय-व्यतिरेक-संबंध हैं।' लक्षण में अलंकार शब्द का उल्लेख भी अनावश्यक है। अलंकार तो केवल पहले से विद्यमान रस का उत्कर्ष करता है। संक्षेप में गुण और अलंकार दोनों उत्कर्षकारक होते हैं, स्वरूपघटक नहीं। | (२) काव्यस्यात्मा ध्वनिः-ध्वनिकार। धिग्धिक्च्छुक्रजित प्रबोधितवता किं कुम्भकर्णन वा | स्वर्गग्रामटिका विलुण्ठनवृोच्छूनैः किमेभिभुजैः ।। -इनुमन्नाटक, १४-६ । काव्यप्रकाश के सप्तम उल्लास ( दोषमकरण ) में ‘अविमृष्ट विधेयांश व दोष' में उद्धृत । । १ [ अन्वये संबंध-यत्सत्त्वे यासत्वम्-किसी के होने पर किसी का होना । व्यतिरेक संबंध--थद्भावे यदभावः—किसी के न होने पर किसी का न होना । जैसे दंड और चक्र के रहने पर घड़े का बनना । यहाँ दंड और चक्र का घड़े के बनने से अन्वय संबंध है। साथ ही दंड और चक्र के अभाव में घड़ा नहीं बन सकता यह दंड और चक्र का उसके बनने से व्यतिरेक संबंध हैं।