पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३८२

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शब्द-शक्ति इस लक्षण में भी अतिव्याप्त है। क्योंकि अलंकार-ध्वनि और वस्तु-ध्वनि पर भी यह घटित होता हैं। इसमें अव्याप्ति दोष भी है। यदि ध्वनि से ध्वनिकार का तात्पर्य रसादि-ध्वनि है तो इसमें कोई दोप संभाव्य नहीं जान पड़ता। यदि ऐसा ही है तो स्वयंदूती की यह उक्ति, ‘खबर उड़ानी हैं बटोही बैंक मारे की’ आदि, को काव्य कैसे कहेंगे । क्योंकि यहाँ रति भाव व्यंग्य है। जैसा कि प्राचीन आचार्यों ने स्वीकार किया है काव्य का सार या आत्मा रस ही है। ‘कृत्याकृत्य-प्रवृत्ति-निवृत्ति-उपदेशः'२ में ‘उपदेश' शब्द का प्रयोजन विधि या आज्ञा नहीं है, अपितु कांतासंमित उपदेश है। (‘उपदेश' शब्द का व्यवहार ठीक नहीं जान पड़ता क्योंकि काव्य प्रवृत्तिनिवृत्त्युत्पादक होता है)। इस संबंध में अग्निपुराण का कथन यह है-वाग्वैदग्ध्यप्रधानऽपि रस एवात्र जीवितम् । व्यक्तिविवेककार महिम भट्ट भी कहते हैं-काव्यस्यात्मनि संगिनि रसादिरूपे न कस्यचिविमतिः । ध्वनिकार का भी कथन हैं कि 'नहि कबेरितिवृत्तमात्रनिर्वाहणात्मपदलाभः ।। प्रश्न–यदि केवल सरस रचना ही काव्य है तो रघुवंश आदि के नीरस अंश काव्यत्व कैसे प्राप्त करेंगे। उत्तर-नीरस पद्य भी सरस पद्यों के वैशिष्ट्य से उसी प्रकार रसवान् हो जाते हैं जिस प्रकार किसी पद्य के नीरस शब्द् पूरे पद्य के रस से सरस हो जाया करते हैं। जिन पद्यों में केवल अलंकार और गुण ही होते हैं वे भी कभी कभी काव्यबंध के साम्य के कारण काव्य कहे ही जाते हैं। १ [उदयनाथ कवींद्र कृत कबित्त का एक चरण; पूरे कबित्त के लिये देखिए 'हिन्दी-साहित्य का इतिहास, सं० १९९९, पृष्ठ ३०० ।] २ [ साहित्यदर्पण, पृष्ठ २१ । ]