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रस-मीमांसा

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३७० रस-मीमांसा ( ३ ) रीतिरात्मा काव्यस्य–चामन । यह भी आपत्तिजनक है, क्योंकि रीति केवल संघटना है, शरीर का अंगविन्यास है। इसलिये यह भी आत्मा नहीं हो सकतीं । विश्वनाथ द्वारा प्रस्तावित लक्षण है-वाक्यं रसात्मक काव्यम् । इसके अंतर्गत रसाभास, भाव और भावाभास भी हैं। जगन्नाथ पंडितराज द्वारा उपस्थापित लक्षण–रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम्' का विचार किया जाय ।। आकांक्षा, योग्यता और आसत्ति से युक्त पदसमूह वाक्य कहलाता है। आकांक्षा=अर्थज्ञान की पूर्ति की जिज्ञासा । योग्यता= बुद्धि-संमत संबंध । आसत्ति= अव्यवधान । आकांक्षा के बिना ‘हाथी, मनुष्य, घोड़ा'—यह पद समूह भी वाक्य हो जायगा। योग्यता-‘पदार्थों के परस्पर संबंध में बाध का न होना ।3 यदि कोई कहे ‘आग से सींचता है तो यह वाक्य न होगा। आसक्ति के लिये अपेक्षित होता है अर्थ के विचार से परस्पर संबद्ध दो पदों के बीच समय और पदार्थ दोनों का अव्यवधान । • १ [ वाक्यं स्याद्योग्यताकांक्षासतिंयुक्तः पदोंच्चयः । साहित्य, २-१ । ] २ [ झाकांक्षा प्रतीतिपर्यवसानविरहः । स च श्रोतुजिज्ञासारूपः---बही, पृ० ३० !] ३ [ योग्यता पदार्थानां परस्परसम्बन्धे बाधाभावः-वही । ] ४ [ शासत्ति बुद्धयविच्छेदः—वही।].