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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा विशेष व्यक्ति का । पहली स्थिति अनंत्य-दोप के कारण अग्राह्य है, क्योंकि किसी जाति के सभी व्यक्तियों के समुदाय का एक ही स्थान और एक ही समय में उपस्थित होना असंभव है। यदि सर्वसामान्य नाम को हम एक व्यक्ति का संकेत मानें तो किसी जाति के प्रत्येक व्यक्ति के लिये पृथक् नाम की आवश्यकता होगी। यदि यह माना जाय कि एक व्यक्ति के शक्तिग्रह के वैशिट्य से जाति के अन्य सभी व्यक्तियों का बोध विना किसी शक्तिग्रह के हो जायगा तो यह कथन ठीक न होगा। क्योंकि शक्तिग्रह के बिना कोई प्रमा ( सत्यज्ञान ) की प्रतीति नहीं हो सकती ।। इसलिये दूसरा तर्क भी व्यभिचार-दोष के कारण असिद्ध हो जाता है। यदि एक व्यक्ति का संकेत करनेवाले शब्द से जाति के अन्य सभी व्यक्तियों का बोध हो तो 'गो' शब्द से घोड़ा, हाथी इत्यादि का बोध होने में कोई बाधा न रह जायगी। यहीं व्यभिचारदोष हैं।' | [ पश्चिम के प्राचीन तर्कशास्त्रियों के विष्वक् सिद्धांतडाक्टूिन ऑब् युनिवर्सल्स–से इसे मिलाइए । आभासवाद (नॉमिनलिज्म), यथार्थवाद (रियलिज्म) और प्रमावाद । ( कॉन्सेप्चुअलिज्म)-इन तीन सिद्धांतों में से लेखक यथार्थवादियों के मत को परिष्कृत रूप में ग्रहण करता जान पड़ता है। इस विवाद को मनोविज्ञान के क्षेत्र में पहुँचाकर छोड़ दिया गया है। क्योंकि मनोविज्ञान दो प्रकार की बौद्धिक प्रक्रिया स्वीकार करता है। अर्थमात्र का बोध और बिंबग्रहण । भाषाविज्ञान भी भापा के दो पक्ष स्वीकार करता है—सांकेतिक और बिंबोधायक । ] | १ [ देखिए साहित्यदर्पण, पृष्ठ ३३ से ३५ तक।]