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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा सुनना और कविता सुनना एक ही बात है ? हम रसात्मक कथाओं या आख्यानों की बात नहीं कहते हैं; केवल घटनावैचित्र्यपूर्ण कहानियों की बात कहते हैं। कविता और कहानी का अंतर स्पष्ट है। कविता सुननेवाला किसी भाव में मग्न रहता हैं और कभी कभी बार बार एक ही पद्य सुनना चाहता है। पर कहानी सुननेवाला आगे की घटना के लिये आकुल रहता हैं । कविता सुननेवाला कहता है “जरा फिर तों कहिए । कहानी सुननेवाला कहता है, ‘‘हाँ ! तबक्या हुआ ? । मन को अनुरंजित करना, उसे सुख या आनंद पहुँचाना, ही यदि कविता का अंतिम लक्ष्य माना जाय तो कविता भी केबल विलास की एक सामग्री हुई। परंतु क्या कोई कह सकता है कि वाल्मीकि ऐसे मुनि और तुलसीदास ऐसे भक्त ने केवल इतना ही समझकर श्रम किया कि लोगों को समय काटने का एक अच्छा सहारा मिल जायगा ? क्या इससे गंभीर कोई उद्देश्य उनका न था ? खेद् के साथ कहना पड़ता है कि बहुत दिनों से बहुत से लोग कविता को विलास की सामग्री समझते आ रहे हैं। हिंदी के रीति-काल के कवि तो मानो राजाओं-महाराजाओं की काम-वासना उत्तेजित करने के लिये ही रखे जाते थे। एक प्रकार के कविराज तो रईसों के मुँह में मकरध्वज रस झोंकते थे, दूसरे प्रकार के कविराज कान में मकरध्वज रस की पिचकारी देते थे। पीछे से तो ग्रीष्मोपचार आदि के नुसखे भी कवि लोग तैयार करने लगे । गरमी के मौसम के लिये एक कविजी व्यवस्था करते हैं सीतल गुलाबजल भरि चहबच्चन में, डारि कै कमलदल न्हायबे को अँसिए ।