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रस-मीमांसा

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३८२ रस-मीमांसा | अभिधामूलक व्यंजना—वह है जो संयोग, विप्रयोग, साहचर्य, विरोध, अर्थ, प्रकरण, लिंग, अन्य शब्द का संनिधान, सामर्थ्य, औचित्य, देश, काल, व्यक्ति, स्वर इत्यादि के द्वारा शब्द के अनेक अर्थों में से एक अर्थ की उपलब्धि से वाच्यार्थ का निश्चय हो जाने पर दूसरे अर्थ की अभिव्यक्ति करती हैं। उदाहरण शंखचक्रबाले हरि–संयोग ।। विना शंखचक्र के हरि–विप्रयोग। भीम अर्जुन-साहचर्य । कर्ण अर्जुन–विरोधिता ( वैर )। भवबाधा दूर करनेवाले स्थाणु को नमस्कार--अर्थ ( प्रयोजन अर्थात् भववाधा-शांति )। देव सिंहासन पर विराजिए—प्रकरण ।। मकरध्वज कुपित हुआ--लिंग ( चिह्न; यहाँ कोप ) । मधु से मत्त कोकिल–सामर्थ्य ( मधु= वसंत )। लक्षणामूलक व्यंजना–अर्थात् लक्षणा पर आश्रित व्यंजना । उदाहरणार्थ, ‘उसका घर बिलकुल पानी में है।' यहाँ 'पानी' का लक्ष्यार्थ ‘पानी का तट' है। व्यंजित वस्तु है ‘आर्द्रता और शैत्य की अतिशयताः । । शाब्दी व्यंजना में व्यंजित अर्थ किसी विशेप शब्द तक ही परिमित रहता है, उसके आगे नहीं बढ़ता ।। अथ व्यंजना आर्थी व्यंजना में वक्ता, बोधव्य (जिसके प्रति बात कही जाय ), वाक्य, अन्य का संनिधान, वाच्य ( अर्थ ), प्रस्ताव