पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/४०

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काव्य कालिदास अंग अंग अगर अतर संग, केसर उसीर नीर घनसार बँसिए, ।। जेठ में गोबिंद लाल ! चंदन के चलन, भरि भरि गोकुल के महलन बसिए । इसी प्रकार शिशिर के मसाले सुनिए गुलगुली गिल, गलीचा हैं, गुनीजन है, चिक हैं, चिराकै हैं, चिरागन की माला है । कई पदमाकर है गजक गजा हू सजी, सज्जा हैं, सुरा हैं, सुराही हैं, सुप्याला हैं । सिसिर के पाला को न ब्यापत कसाला तिन् हैं, जिनके अधीन एते उदित मसाला हैं । सौंदर्य सौंदर्य बाहर की कोई वस्तु नहीं है, मन के भीतर की वस्तु है। योरपीय कला-समीक्षा की यह एक बड़ी ऊँची उड़ान या बड़ी दूर की कौड़ी समझी गई है। पर वास्तव में यह भाषा के गड़बड़झाले के सिवा और कुछ नहीं है। जैसे वीरकर्म से पृथक वीरत्व कोई पदार्थ नहीं, वैसे ही सुंदर वस्तु से पृथक् सौंदर्य कोई पदार्थ नहीं । कुछ रूप-रंग की वस्तुएँ ऐसी होती हैं जो हमारे मन में आते ही थोड़ी देर के लिये हमारी सन्ता पर ऐसा अधिकार कर लेती हैं कि उसका ज्ञान ही हवा हो जाता है और हम उन वस्तुओं की भावना के रूप में ही परिणत हो जाते हैं । हमारी अंतरसत्ता की चही तदाकार-परिणति सौंदर्य की अनुभूति है। इसके विपरीत कुछ रूप-रंग की वस्तुएँ ऐसी होती हैं।