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रस-मीमांसा

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३९२ रस-मीमांसा कविप्रौढोक्तिसिद्ध वस्तु से अलंकार व्यंग्य-है वीर, कैवल रात्रि में ही चंद्रमा की किरणों से प्रकाशित होनेवाले भुवनमंडल को अब आपकी कीर्ति दिनरात शोभित कर रही है। यहाँ ‘कीर्ति का प्रकाश’ कविप्रौढोक्तिसिद्ध वस्तु है जिससे व्यतिरेक अलंकार व्यंग्य है अर्थात् कीर्ति चाँदनी से अधिक प्रकाश करनेवाली है। कविप्रौढाक्तिसिद्ध अलंकार से व्यंग्य वस्तु—उस समय रावण की मुकुटमणियों के बहाने राक्षस-श्री के आँसू पृथ्वी पर गिरे। मुकुट से मणियों का गिरना अपशकुन है। इसलिये अपहनि अलंकार के द्वारा श्री के आँसू गिराए गए हैं। श्री के आँसू कल्पित हैं, अतः कविप्रौढोक्ति सिद्ध अलंकार है। इससे ‘राक्षसों की शक्ति के विनाश वस्तु की व्यंजना हो रही है। कविप्रौढोक्ति सिद्ध अलंकार से व्यंग्य अलंकार--हे त्रिकलिंगदेश-तिलक आपकी अकेली कीर्तिराशि इंद्रपुरी की स्त्रियों के अनेक भूषणों के रूप में परिणत हो गई–चोटी में मल्लिका के पुष्प हुई, हाथ में श्वेत कमल, गले में हार, शरीर में चंदन-लेप' । यहाँ १ [ रजनीषु विमल भानों करजालेन प्रकाशितं बर।। धवलयति भुवनमण्डलमखिलं तव कीर्तिसन्ततिः सततम् ।। | -वही, १८० ।] २ [ दशाननकिरीटेभ्यस्तक्षणं राक्षसश्रियः । । मगिव्याजेन पर्यस्ताः पृथिव्यामश्रुबिन्दवः ।। - वही ।] ३ [ धमिल्ले नवमल्लिकासमुदयो हस्ते सिताम्भोरुहं हारः कण्ठतटे पयोधरयुगं श्रीखण्डलेपो घनः । एकोऽपि त्रिकलिंगभूमितिलक लत्कीर्तिराशिर्ययौ। नानामण्डनतां पुरन्दरपुरीवामझुवा विग्रहे ।। -वही ।]