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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा कवि की कल्पना यह है—कामदेव के बाण करोड़ों की संख्या में हो गए हैं जिससे वियोगियों की मृत्यु हो रही है। इससे उत्प्रेक्षा अलंकार व्यंग्य है। ( बाणों की पंचता मानों वियोगियों को प्राप्त हो गई है।) वक्ता के प्रौढोक्तिसिद्ध अलंकार से व्यंग्य वस्तु-‘हे क्रोधशीले ! चमेली की कली पर गूंजता हुआ भ्रमर ऐसा मालूम होता है मानों कामदेव की विजययात्रा का विजयशंख बज रहा है। उत्प्रेक्षा अलंकार कविप्रौढोक्तिसिद्ध है और इससे इस वस्तु की व्यंजना होती है कि यह प्रेम का समय है, मान का नहीं। वक्ता के प्रौढोक्तिसिद्ध अलंकार से व्यंग्य अलंकारहे सुंदर ! ज़ारों स्त्रियों से भरे हुए तुम्हारे हृदय में अवकाश न पाकर वह कामिनी और सब काम छोड़कर दिनरात अपने दुर्बल शरीर को और भी दुर्बल बना रही है। काव्यलिंग अलंकार ( नायक के हृदय में स्थान न पाकर ) कल्पित है। इससे दूसरा अलंकार विशेषोक्ति व्यंग्य है-वह दुर्बल और क्षीण होने पर भी हृदय में स्थान नहीं पा रही है। (३) उभयश युद्भव ध्वनि-इसके उपभेद नहीं होते । यह केवल वाक्यगत होती है। अन्य दो भेद (शब्दशक्युद्भव और अर्थशक्युद्भव ) पदुगत और वाक्यगत दोनों होते हैं ( अन्योक्ति | १ [ मल्लिकामुकुले चण्डि भातिं गुञ्जन्मधुव्रतः । • प्रयाणे पञ्चत्राणस्य शङ्खमापूरयन्निव ।। -बद्दी । ] २ [ महिलासहरसभरिए तुह हिआए सुआ सा अमाअन्ती ।। अणुदिणमणरणकम्मा अङ्गं तणुओं पि तणुएइ । —वही ।]