पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/४१२

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शब्द-शक्ति | गुणीभून व्यंग्य । व्यंग्य अर्थ या तो अन्य ( रसादि ) का अंग होता है या काकु से आक्षिप्त होता है या वाच्यार्थ का ही उपपादक ( सिद्धि का अंगभूत ) होता है अथवा वाच्य की अपेक्षा उसकी प्रधानता संदिग्ध रहती है या वाच्यार्थ व्यंग्यार्थ की बराबर प्रधानता रहती है अथवा व्यंग्य अर्थ अस्फुट रहता है, गढ़, अत्यंत अगृढ़ (स्पष्ट) या असुंदर होता है। उदाहरण रसादि का अंग रस-स्मर्यमाण शृंगार करुणा का अंग । ‘हा ! यह वह हाथ है जो रशना का आकर्षण करता था, कपोलों का स्पर्श करता था इत्यादि । | ( यह ध्यान में रखने की बात है कि ऐसे उदाहरणों में पूरा पद्य मध्यम काब्य नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यहां निश्चय ही रस हैं और अप्रधान व्यंग्य उसका अंग है । लेखक [ साहित्यदर्पणकार ] ने इसे स्वीकार किया है—देखिए पृष्ठ २०२] । | वाच्यार्थ का उपपादक-हे राजेंद्र पृथ्वी और अकाश के मध्य सर्वत्र प्रकाश करता हुआ वैरि-वंश का दावानल रूप यह आपका प्रताप सर्वत्र जग रहा है । ( श्लेष द्वारा शत्रु में बाँस १ [अयं स रशनोत्कर्षी पीनस्तनविमर्दनः ।। नाभ्यूरूजघनस्पर्शी नीवीवितं सनः करः ।। वहीं, पृष्ठ १९६ ।] [ किं च यत्र वस्त्वलंकाररसादिरूप व्यंग्यानां रसाभ्यन्तरे गुण भाबस्तत्र 'प्रधानकृत एव काव्यब्यवहारः । तदुक्तं तेनैवप्रकारोऽयं गुणीभूतव्यङ्गयोऽपिध्वनिरूपताम् । धत्ते रसादि तात्पर्यपर्यालोचनया पुनः ।। ३ [ दीपयन्रोदसी रन्ध्रमेष ज्वलति सर्वतः । प्रतापस्तव राजेन्द्र वैरिवंशवानलः ।। —बही, पृष्ठ १९९।]