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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा का आरोप व्यंग्य हैं। पर यह व्यंग्य अलंकार वाच्यार्थ दावानल का साधक है।) | इसी प्रकार यदि व्यंजित सादृश्य के अनंतर उपमानशब्द द्वारा कथित होता है तो व्यंग्य का महत्व नहीं रह जाता और वह वाच्यार्थ का अंग हो जाता है। अस्फुट व्यंग्य-संधि करने में सर्वस्व छिनता है और विग्रह करने में प्राणों का भी निग्रह होता है। अलाउद्दीन के साथ न तो संधि हो सकती है और न विग्रह ।। 'अलाउद्दीन के साथ केवल साम र दाम से काम वन सकता है। व्यंग्य है जो स्पष्ट नहीं है । उपमा अथवा दीपक, तुल्ययोगिता इत्यादि में होनेवाला व्यंग्य-सादृश्य गुणीभूत व्यंग्य का उदाहरण होगा ध्वनि का नहीं। जहाँ गुणीभूत व्यंग्य रस का अंग होता है वहाँ पूरा पद्य ध्वनियुक्त माना जाता है। किंतु जहां यह रस का अंग नहीं होता प्रत्युत ( नगरादि ) के वर्णनों आदि का अंग होता है। वहां गुणीभूत व्यंग्य या मध्यम काव्य होता है, जैसे, | जिस नगरी के ऊँचे ऊँचे प्रासादों में जड़े लाल मणियों का गगनचुंबी प्रकाश यौवनमद से मत्त रमणियों को बिना संध्याकाल के ही संध्या का भ्रम उत्पन्न करके कामकलाओं से पूर्ण भूषणादि-रचना में प्रवृत्त करता है । काव्य का तीसरा भेद जिसे चित्र कहते हैं, अस्वीकृत कर दिया गया है ।। १ सन्धी सर्वस्वहरणं विग्रहे प्राणनिग्रहः । । | अल्लावदीन नृपती न सुन्धिर्न च विग्रहः ॥ —वहीं ।] । २ [ यत्रोन्मदानां प्रमदाजनानामāलिहः शोणमणीमयूखः । संध्याभ्रमं प्राप्नुवतामकाण्डेऽप्यनङ्गनैपथ्यविधि विधत्ते ।। -वही, पृष्ठ २०२।]