पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/४१४

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शब्द शक्ति १०१ [४] व्यंजना की स्थापना नैयायिक और मीमांसक व्यंजना को पृथक् वृत्ति नहीं मानते । अलंकार-शास्त्री इसे स्वीकार करते हैं। उनका कहना है कि अभिधा, लक्षण और तात्पर्य वृत्तियों के कार्य कर चुकने पर इसी वृत्ति से रस, अलंकार या वस्तु व्यंग्यार्थ के रूप में व्यंजित होते हैं। अभिधा व्यंग्यार्थ का बोध कराने में असमर्थ अभिधा संकेतित अर्थ का बोध कराकर स्थगित हो जाती हैं। इसलिये तदनंतर अन्य अर्थ का, अर्थात् रस, अलंकार या वस्तु का बोध कराने में वह अक्षम होती है। उदाहरणार्थ रस को लीजिए जो विभाव, अनुभाव इत्यादि के द्वारा व्यजित कहा जाता है। अब न तो विभाव ( जैसे राम, सीता आदि ) और न अनुभाव ( जैसे कंपादि ) ही किसी रस के द्योतक हैं। रस और विभाव इत्यादि सदृश नहीं हैं। वे एक ही वस्तु नहीं हैं। इतना ही नहीं यदि कोई कहता है कि यह श्रृंगार रस है तो इस वाक्य से किसी रस की कोई व्यंजना नहीं होती। इसके विपरीत रस का नाम लेना दोष है ( स्वशब्दवाच्यत्व )। इन सबसे स्पष्ट है कि अभिधा के द्वारा व्यंग्यार्थ की प्रतीति नहीं हो सकती । यह पहले कहा जा चुका है। कि मीमांसकों के दो संप्रदाय हैं एक अभिहितान्वयवादी जो तात्पर्य वृत्ति को स्वीकार करते हैं, दूसरे अन्विताभिधानवादी जो उसे स्वीकार नहीं करते। दोनों व्यंजना को चौथी वृत्ति अस्वीकृत करने में एकमत हैं। अभिहितान्वयवादियों का कहना है कि अभिधा का प्रसार इतना अधिक हो सकता है कि उसकी प्रतीति के । अंतर्गत कोई भी अर्थ गृहीत हो सके, चाहे वह कितना ही दूरारूढ़