पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/४१८

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शब्द-शक्ति ४१५ व्यंग्य शब्द में, शब्द के अंश में, अर्थ में, वर्गों में अथवा रचना में भी रह सकता है। | विषय–“प्रिया का व्रणयुक्त ओष्ट देखकर किसके मन में क्षोभ न होगा । हे भ्रमयुक्त पद्म को पूँघनेवाली निवारित वामा, अब तू सहन कर । यहाँ वाच्यार्थ की दृष्टि से लक्ष्य या विषय नायिका जान पड़ती है, किंतु व्यंग्य का विपय नायक है। क्योंकि उसके संदेह-वारण के लिये यह बात कही गई है। अभिधा और लक्षण पहले से सिद्ध ( विद्यमान ) वस्तुओं का बोधन कराती है। किंतु शब्द जब तक विशेष प्रकार से अपना कार्य संपन्न नहीं कर लेते तब तक रस की सत्ता नहीं रहती। इस तात्त्विक भेद को सदा ध्यान में रखना चाहिए । व्यंजित होने के पूर्व रस की सत्ता नहीं रहतीं। इसमें कोई पूर्वसिद्ध वस्तु या तथ्य नहीं है जिसे अभिधा या लक्षण बोध करावें । रस वस्तुतः आस्वाद या आनंद की अनुभूति हैं जो श्रोता के मन में प्रकट होती है और व्यक्त होने के पूर्व इसका कोई अस्तित्व नहीं होता। “व्यक्तिविवेक' ( साहित्यशास्त्र पर एक प्रबंध ) के कर्ता महिमभट्ट ने व्यंजना का खंडन किया है। उनका कहना है कि व्यंग्यार्थ अनुमान के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। उनके तर्क निम्नलिखित हैं जैसे एक वस्तु से हम दूसरी वस्तु का अनुमान करते हैं उसी प्रकार विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से जो भावों के क्रमशः कारण, कार्य और सहकारी होते हैं हम रस का भी अनुमान करते हैं। पूर्ववत् , शेषवत्, और सामान्यतो दृष्ट अनुमान १.[ कस्स व ण होइर सो दट्टण पिशाए सव्वणं अहम् ।। सब्भभपडमग्घाइ णिवारिश चाने सद्दसु एरिहम् ।। | वही, पृष्ठ २१० ।]