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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा ( कारण से कार्य का, कार्य से कारण का, सामान्य से विशेष का अनुमान अर्थात् एक वस्तु के ज्ञान से उस दूसरी वस्तु का ज्ञान जो उसके साथ देखी जाती है जैसे अग्नि धुएँ के साथ । ) के द्वारा विभाव, अनुभाव और संचारी रति इत्यादि का अनुमान कराते हैं जिससे रस की निष्पत्ति होती है। उदाहरणार्थ राम के प्रति सीता के प्रेम को लीजिए। इसे अनुमान की प्रक्रिया के रूप में यों रख सकते हैं सीता में राम के प्रति रति है—प्रतिज्ञा। क्योंकि वे राम के प्रति प्रेमभरी दृष्टियों से देखती हैं—हेतु । जिसमें रति-भाव नहीं होता वह इस प्रकार नहीं देखतीदृष्टांत । इसलिये सीता राम के प्रति अनुरागवती हैं—उपनय । रति का यह.अनुमान उत्कृष्ट आस्वाद कोटि ( आस्वाद पदवी) में पहुँचकर श्रृंगार रस हो जाता है—उपनय । । | इसका अभिप्राय यह हैं कि भाव का अनुमान रस की प्रतीति कराता है। अर्थात् हम पहले भाव का अनुमान करते हैं तब रस का आस्वाद लेते हैं। दूसरे शब्दों में इन दोनों में कारण-कार्य भाव है । हमें पहले विभाव इत्यादि की प्रतीति होती है फिर हम भाव का अनुमान करते हैं और अंत में रस तक पहुंचते हैं जो अनुमान की प्रक्रिया के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। किंतु यह पहले ही कहा जा चुका है कि रस असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य है। महिमभट्ट इस आपत्ति का समाधान यह कहकर करते हैं कि इसमें क्रम निस्संदेह होता है। किंतु शीघ्रता के कारण वह संलक्ष्य नहीं होता। हमारा प्रतिवाद यह है कि सीता में राम के प्रति रति-भाव हैकेवल इस तथ्य का ज्ञान ही रस नहीं है। अनुमान ज्ञान का विषय है इसलिये वह किसी न किसी प्रकार के ज्ञान के रूप में ही