पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/४२०

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शब्द-शक्ति परिणत हो सकता है। यदि हम किसी अन्य मानसिक स्थिति के द्वारा रस तक पहुँचते हैं तो उसे दूसरी प्रक्रिया मानना पड़ेगा। यह बात उठाई जा सकती है कि एक अनुमान के द्वारा हम सीता और राम के रति-भाव के ज्ञान तक पहुँचते हैं और दूसरे अनुमान के द्वारा हम उसके आस्वाद तक पहुँच जाते हैं। अनुमान की प्रक्रिया वैसी ही होगी जैसी ‘यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वह्निः' में होती है। हम कह सकते हैं कि 'यत्र यत्र रामादिगतानुरागज्ञानं तत्र तत्र रसोत्पत्तिः। किंतु यह हेत्वाभास मात्र है। यहाँ व्याप्तिग्रह नहीं हैं। रस भाव के अनुमान के साथ साथ अनिवार्य रूप से नहीं रहता जैसा धूम के साथ वह्नि रहती है। क्योंकि नैयायिक, वैयाकरण इत्यादि इस बात का अनुमान तो कर सकते हैं कि अमुक अमुक व्यक्तियों के बीच रति-भाव है, किंतु श्रृंगार रस का आस्वाद नहीं ले सकते । हेतु के व्यभिचारी होने से यह हेवाभास हो गया। इसलिये अनुमान ठीक नहीं उतर सकता । इसके अतिरिक्त अपनी ही मानसिक स्थिति की सत्ता का ज्ञान अनुमान की प्रक्रिया द्वारा होना भी बेतुका है। निदान, भाव की स्थिति का ज्ञान अनुमान की प्रक्रिया के द्वारा होता है—इस सिद्धांत से रस अनुमेय सिद्ध नहीं हो सकता । क्योंकि केवल भाव की सत्ता के ज्ञान से रस सर्वथा पृथक् होता है। विचार आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से ऊपर के लंबे चौड़े वाद्विवाद का अधिकांश शब्दों का अपव्यय मात्र जान पड़ेगा। जो ज्ञान ( कागनीशन ) और अनुभूति ( फीलिंग) का पार्थक्य जानता है, उसके लिये ऐसे तक की कोई आवश्यकता नहीं कि रस एक वस्तु है और भाव का ज्ञान दूसरी वस्तु । रस आनंद की विशेष स्वरूपवाली अनुभूति हैं जो तर्क की किसी प्रक्रिया के द्वारा