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रस-मीमांसा

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  • रस मीमांसा ग्राह्य नहीं है। भ्रांति के अधिकांश का हेतु वस्तुतः व्यंजना शब्द के व्यवहार की असावधानी है, जिसके द्वारा रस को व्यंग्य कहा है। वस्तु-व्यंजना और अलंकार-व्यञ्जना में इस शब्द का व्यवहार किसी तथ्य या वस्तु के ज्ञान की अभिव्यक्ति की प्रक्रिया बतलाने के लिये होता है। किंतु रस-व्यंजना में व्यंजना से सर्वथा पृथक् प्रक्रिया का बोध कराया जाता है। किसी विशेष भाव का रस के रूप में आस्वाद लेने की अभिव्यक्ति का संकेत इस शब्द से मिलता है। वस्तुतः एक स्थिति में कुशाग्र मति व्यक्ति तथ्य की प्रतीति करनेवाले होते हैं और दूसरी स्थिति में हृदय-संपन्न ( सहृदय) व्यक्ति होते हैं जो व्यंजना का ग्रहण करके रस का

आस्वाद लेते हैं। व्यंजना का शाब्दिक अर्थ हैं—प्रकट करना ( प्रकाशन )। ‘प्रकाशन' शब्द का अभिप्राय यह है कि जिस बस्तु का प्रकाशन होनेवाला है उसकी सत्ता पहले से ही है। किंतु यह् पहले कहा जा चुका है कि अनुभूति के पूर्व रस की सत्ता नहीं होती । श्रोता के मन में प्रसुप्त भावों का प्रकाश रस के रूप में होता है। इसलिये ‘प्रकट करना' का अर्थ होगा केवल अनुभूति उत्पन्न करना। इसलिये इस व्यंजना में रस शब्द का व्यवहार बहुत उपयुक्त नहीं है। ‘रसा प्रतीयन्ते' में प्रतीयन्ते' शब्द को परिष्कृत अर्थ में ग्रहण करना चाहिए। वस्तुतः रस उत्पन्न होता है ज्ञात नहीं कराया जाता। यद्यपि अलंकार-शास्त्रियों के सिद्धांतानुसार रस न तो ज्ञाप्य (जिसका ज्ञान कराया जाय ) होता है। न कार्य, जो उत्पन्न किया जा सके। किंतु रस के कार्यत्व के संबंध में जो आपत्ति उठाई गई है वह आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से ग्राह्य नहीं है। यह आपत्ति स्पष्ट इस नैयायिक सिद्धांत पर स्थित है कि युगपत् ज्ञान असंभव है। इस सिद्धांत का साहित्य के क्षेत्र में हाथ बढ़ाना वस्तुतः आलंकारिकों के द्वारा ज्ञान