पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/४२२

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शब्द-शक्ति ( कागनीशन ) और अनुभूति ( फीलिंग ) विषयक पारस्परिक विवेक के अभाव से ही हुआ है। वे रस को ज्ञान और प्रतीति दोनों कहते हैं। किंतु रस भाव की अनुभूति है, आप चाहें तो भाव को प्रच्छन्न भाव कह सकते हैं। ज्ञान और अनुभूति दोनों की युगपत् अनुभूति हो सकती है क्योंकि ये दोनों विभिन्न मानसिक प्रक्रियाएँ हैं। भाव, (इमोशन) ज्ञान ( कागनीशन ), अनुभूति ( फीलिंग ) और इच्छा या संकल्प ( कोनेशन ) का संश्लेष होता है। इसलिये हम बड़े मजे में कह सकते हैं कि विभाव-अनुभाव के प्रदर्शन से ऐसे विभाव-अनुभाव के ज्ञान की उत्पत्ति होती है जिसके साथ विशेष प्रच्छन्न या प्रसुप्त भाव की अनुभूतिं लगी रहती है। | डाक्टर सतीशचंद्र विद्याभूषण अलंकारशास्त्र के साथ न्यायशास्त्र के मिश्रण के संबंध में अपना दुःख इन शब्दों में व्यक्त करते हैं यह बड़े खेद की बात है कि गत ५०० वर्षों से न्याय कानून अलंकारशास्त्र इत्यादि में घुस पड़ा है और इस प्रकार वह ज्ञान की उन शाखाओं के विकास में घातक हो रहा है, जिन शाखाओं के आश्रय में ही इसका आरोह और पोषण हुआ है ।। इसलिये यदि व्यंजना किसी तथ्य की व्यंजना करती है। तो यही कि व्यंजित भाव की श्रोता या दर्शक के द्वारा रस रूप में अनुभूति होती हैं। इस प्रकार उस व्यंजना के द्वारा उत्पन्न होता है। भाव की अवस्थिति नायक और नायिका में होती है। और रस की अनुभूति श्रोता या दर्शक के द्वारा होती है। पात्र के मन में रस नहीं होता जो व्यंजित किया जा सके। इसलिये व्यंजना की प्रक्रिया का विवेचन करने का उचित मार्ग यह हैं।