पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/४२८

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शब्द-शक्ति ही अवस्थित रहते हैं। इसलिये और विशुद्ध रूप में हम यों कह सकते हैं कि विभाव अनुभाव के ज्ञान से रस नामक अनुभूति उत्पन्न होती है। रस की आनंदानुभूति उस समय होती है जब सुख का उद्रेक सत्त्वोद्रेकात्, होता है और रजस् तमस् दब जाते हैं। रस वस्तुतः अनुभूति हैं, अनुभूति क़ा विषय नहीं । देखिए पृष्ठ ४०८।। यदि रस आनंद की अनुभूति है तो करुण, बीभत्स को रस कैसे कहा जाय । इनके लिये दिए गए तर्क संतोषप्रद नहीं हैं। मनोवैज्ञानिक अनुभूति को क्रीड़ा वृत्ति मानते हैं। श्रम और पीड़ा जब क्रीड़ा की वृत्ति में स्वतःप्रवर्तित होते हैं तब उनकी अनुभूति आनंदस्वरूप होती है। किसी पात्र के आलंबन का प्रदर्शन भाव की अनुभूति रस रूप में कैसे उत्पन्न कर सकता है। सामान्यता की प्रक्रिया से जिसे साधारणीकरण कहते हैं, श्रोता या दर्शक का पात्र के साथ तादात्म्य हो जाता है । भावों की अनुभूति प्रदर्शित विशिष्ट विषयों के साथ नहीं होती, प्रत्युत साधारण रूप में होती है। रसानुभूति काल में श्रोता इस बात का विचार करने नहीं जाता कि भाव मेरे हैं या दूसरे के। रसचक्र (१) पूर्ण रस= श्रोता का आलंबन वही जो आश्रय का ( भावात्मक ) । (२) मध्यम रस = श्रोता: का आलंबन आश्रय स्वयं । ओता के औत्सुक्य का ( कल्पनात्मक )। अनौचित्य को साभास माना है किंतु अनुपयुक्तता को नहीं । द्वितीय चरित्र-चित्रण में बड़े मजे में प्रयुक्त हो सकता है।