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रस-मीमांसा

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रस मीमांसा (३) एक विषय में किसी के प्रति कोई भाव उत्पन्न होने से उसके संबंधी अन्य विषयों के प्रति भी प्रायः वैसा ही भाव उत्पन्न हो जाता है। वाल्मीकिजी ने कैकेयी के द्वारा इसका बड़ा विनोदपूर्ण उदाहरण खड़ा किया है। मंथरा ने जब कैकेयी के हृदय में अपने प्रति सुहृद्भाव उत्पन्न कर लिया तब कैकेयी कहती हैं “एक तुझे छोड़ और सव टेढ़े अंग-भंगयुक्त और परम पापिष्ट हैं और तू वायु से झुके कमल के समान प्रियदर्शना है। तेरा वक्षःस्थल स्कंधपर्यंत इस मौत के लोंद से भरा और ऊंचा है, और नीचे सुंदर नाभि से युक्त उदर वक्षःस्थल से मानो लज्ञित होकर शांत अर्थात पैंसा हुआ है.. तेरा मुम्ब विमलचंद्र के तुल्य है” इत्यादि । अयोध्या ९।। (४) “अब उस काल में नराधिप अमर्प से “अहो ! धिकार है !” ऐसा वचन कह फिर शोक से मूर्छित हो गए। फिर कुछ अधिक विलंव में संज्ञा को प्राप्त हो अति दुःखित हुए, तदनंतर क्रुद्ध हो तेज से जलाते हुए कैकेयी से बोले” । अयोध्या १२ । सा दह्यमाना क्रोधेन मंथरा पापदशिनी । शयानामैव कैकेयोमिदं वचनमब्रवीत् ॥ १३ ॥ ( वही )] १ [ नाहं समवबुद्धयेयं कुब्जे राश्चिकीर्पितम् ।। सन्ति दुःसंस्थिताः कुब्जे वक्राः परमपापिकाः ॥ ४० ॥ वं पद्ममिव वातेन संनता प्रियदर्शना । उरस्तेऽभिनिविष्टं वै यावत्स्कन्धात्समुन्नतम् ॥ ४१ ॥ अधस्ताच्योदर शान्तं सुनाभमिव लज्जितम् ।......४२॥ विमलेन्दुसमं वक्त्रमहो राजसि मन्थरे ।......४३।। (वही) । २ [ मण्डले पन्नगो रुद्ध मन्त्रैरिव महाविषः। अहो धिगति सामर्षों वाचमुक्त्वा नराधिपः ।।५।।