पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/४४

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कान्य वह उधर देखता है जिधर सौंदर्य दिखाई पड़ता है। इतनी सी बात ध्यान में रखने से ऐसे ऐसे झमेलों में पड़ने की आवश्यकता बहुत कुछ दूर हो जाती हैं कि 'कला में सत्-असत्, धर्माधर्म का विचार होना चाहिए या नहीं, ‘कवि को उपदेशक बनना चाहिए या नहीं। | कवि की दृष्टि तो सौंदर्य की ओर जाती है, चाहे वह जहाँ हो--- वस्तुओं के रूपरंग में अथवा मनुष्यों के मन, वचन और कर्म में । उत्कर्ष-साधन के लिये, प्रभाव की वृद्धि के लिये, कवि लोग कई प्रकार के सौंदर्यों का मेल भी किया करते हैं। राम की रूपमाधुरी और रावण की विकरालता भीतर का प्रतिबिंब सी जान पड़ती हैं। मनुष्य के भीतरी-बाहरी सौंदर्य के साथ चारों ओर की प्रकृति के सौंदर्य को भी मिला देने से वर्णन का प्रभाव कभी कभी बहुत बढ़ जाता है । चित्रकूट ऐसे रम्य स्थान में राम और भरत ऐसे रूपवानों की रम्य अंतःप्रकृति की छटा का क्या कहना है ! चमत्कारवाद काव्य के संबंध में 'चमत्कार', 'अनूठापन' आदि शब्द बहुत दिनों से लाए जाते हैं। चमत्कार मनोरंजन की सामग्री है, इसमें संदेह नहीं । इससे जो लोग मनोरंजन को ही काव्य का लक्ष्य समझते हैं वे यदि कविता में चमत्कार ही हुँदा करें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। पर जो लोग इससे ऊँचा और गभीर लक्ष्य समझते हैं वे चमत्कार मात्र को काव्य नहीं मान सकते । 'चमत्कार' से हमारा अभिप्राय यहाँ प्रस्तुत वस्तु के अद्भुतत्व या वैलक्षण्य से नहीं जो अद्भुत रस के आलंबन में होता है। 'चमत्कार' से हमारा तात्पर्य उक्ति के चमत्कार से है जिसके अंतर्गत वर्णविन्यास की विशेषता (जैसे, अनुप्रास