पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/४४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४२८
रस-मीमांसा

________________

रस-मीमांसा राग और द्वेप एकाकी भाव नहीं हैं। स्पेसर ने कामवृत्तिमूलक प्रेम या संस्कार के संयोजकों के अंतर्गत राग, प्रशंसा, रक्षा का आंनद इत्यादि इत्यादि की गणना की है। किंतु प्रेम संयुक्त अनुभूति नहीं है प्रत्युत एक चक्र है, जिसके अंतर्गत भिन्न भिन्न अनुभूतियाँ और भाव संघटित हैं। दांपत्य रति और वात्सल्य रति के अंतर्गत और सब प्रकार के रति-भाव आ जाते हैं। स्थायीभाव एक व्यक्ति से दूसरे में भाव की अपेक्षा कहीं अधिक परिवर्तित रूप में रहते हैं। स्थायीभावों के द्वारा व्यक्ति अधिकाधिक आत्मावलंबन की स्थिति में हो जाता है। उनमें एक प्रकार की दृढ़ता आ जाती है। उनमें से अत्यंत प्रमुख ये हैं आत्मानुरक्ति जिसके अंतर्गत भाव ही नहीं थायीभाव भी आते हैं। किंतु स्थायीभाव हैं अहंकार, अपमान, लालसा, * धनलोभ, इंद्रियासक्ति या रति, कामसुख ।। ये सापेक्षिक स्थायी वृत्तियाँ वे ही हैं जिन्हें हम स्थायीभाव कहते हैं - एंजिल । अमूर्त और मूर्त; जैसे सत्य, विज्ञान या कला का प्रेम और गुरुजनों के प्रति प्रेम या श्रद्धा ।- वही । अनुभूति और राग| राग में हमारी चेतना की अवस्था का अनुकूल और प्रतिकूल तत्त्व या पक्ष । पूर्णरूपेण संमिश्र अवस्था, जब यह घटित होता है, संवेदनात्मक और बोधात्मक तत्त्वों से युक्त अनुभूति है। बुंट और सोयी ने उत्तेजना और शम की निरर्थक योजना की है। क्योंकि वे अनुभूति नहीं विशेषताएँ हैं, जो चेतना की साधारण क्रिया से संलग्न हैं। जब हम बहुत उत्तजित होते हैं तव हमारे स्नायु कड़े पड़ जाते हैं और हमारा श्वास-प्रश्वास असाधारण हो जाता है। सौंदर्यानुगत पंदनातिशय के अभाव में जब स्नायविक शांति रहती है तब हमारी चेतना-प्रक्रियाओं में परि