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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा (१) प्रगीत या सापेक्ष दृष्टि ( क ) शुद्ध प्रगीतकार एक ही वाणी और एक ही स्वर का गान कर सकते हैं अर्थात् वे अपनी ही अनुभूतियों एवं अपने ही भावों से परिप्लुत रहते हैं और चतुर्दिक् व्याप्त विश्वदर्शन नहीं कर पाते ।। ( ख ) प्रबंधकार कवि एक ही वाणी से अनेक स्वरों का गान कर सकता है। उसमें विस्तृत कल्पना होती हैं फिर भी वह सापेक्ष और अहंभावात्मक होती है। वह सर्वभूत में आत्मभूत को लीन करके उसकी कल्पना करता है। वह अपने ही अहम् को अनेक रूपों में परिवर्तित कर लेता है; कोई दूसरा अहम् नहीं निर्मित करता ।। अधिकतर प्रचंधकार और नाटककार इसी श्रेणी के अंतर्गत हैं। समग्र एशियाई कवि एवं भारतीय नाटककार भी सापेक्ष-दृष्टिसंपन्न ही थे। (२) निरपेक्ष या यथार्थ नाटकीय दृष्टिं केवल सच्चे नाटककार ही अपने व्यक्तित्व से सर्वथा स्वच्छंद चरित्रों की सृष्टि कर सकते हैं। वे ऐसे सामान्य चरित्रों की सृष्टि करने में नहीं लगते जो अपने ही रूप को भिन्न भिन्न परिस्थितियों में ढालने से बनते हैं, प्रत्युत वे ऐसे प्राणियों की सृष्टि करते हैं जो उनसे सर्वथा पृथक् होते हैं। अरस्तू-काव्य का अपरिहार्य आधार आविष्कार है। उसने कार्य-व्यापार के संविधान को ही मुख्य माना है। उसकी धारणा के अंतर्गत समस्त कल्पना-प्रसूत साहित्य आ जाता है, चाहे वह गद्य में हो या पद्य में। उसने कविता को प्रकृति के तथ्यों की कल्पना कहा है।