पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/४४४

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। परिशिष्ट अफलातून–कविता को मनुष्य के स्वप्नों की कल्पना समझता है, अरस्तू र अफलातून दोनों ने पद्यबद्धता को कम महत्त्व दिया है। दोनों ने आकार की वस्तु पर अधिक जोर दिया है। डिस्नीसियस–ने उक्त मत का प्रतिपादन किया और इस मत की स्थापना की कि कविता का मूलतः रीति ( शैली ) से संबंध है। आधुनिक समीक्षकों ने पद्यबद्धता को तात्विक माना है। हीगल ( ऐस्थिक ) तो यहाँ तक कहते हैं कि छंद कविता के लिये अनिवार्य और मुख्य शर्त है, यह आलंकारिक चित्रोपम पदावली से कहीं विशेष आवश्यक है। “काव्य-कला का विशिष्ट विधान यह है कि विषय जितना ही आसक्तिपूर्ण, वेगमय या काल्पनिक होगा उतनी ही सावधानी से कविकर्म के विशुद्ध कौशल मात्र से बचने की आवश्यकता होगी। इस नियम का आविष्कार मनुष्य ने नहीं किया है। प्रत्युत इसका आधार प्रकृति के नियम हैं ।। काव्यात्मक कल्पना-कवि और ही प्रकार की दृष्टि से जीवन को देखता है, उससे मानव-जीवन का रूपांतर हो जाता है तथा वह उच्च हो जाता है। जो ज्योति जल या स्थल पर कभी नहीं दिखाई पड़ी उसे कवि के नेत्र प्रत्यक्ष देखते रहते हैं। कवि ही ऐसा है जिसने जगत् को भड़कीले स्वर्णदेश की भावना से कभी नहीं देखा ।। यथार्थवाद-शेली और कीट्स में यथार्थवाद का स्पर्श मात्र हैं। उनमें जीवन की मुखाकृति के लिये प्रेमपूर्ण नेत्रों का पता नहीं चलता, चाहे वह जीवन प्रकृति का हो चाहे मनुष्य का, बह भी ऐसी स्थिति में जब कि साधारण से साधारण कवियों में यह ललक मिलती है। केवल काव्य-साधन पर ही उनका अनन्य