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रस-मीमांसा


रस-मीमांसा में ), शब्दों की क्रीड़ा ( जैसे श्लेष, यमक आदि में ), वाक्य की वक्रता या वचनभंगी ( जैसे काव्यार्थापत्ति, परिसंख्या, विरोधाभास, असंगति इत्यादि में ) तथा अप्रस्तुत वस्तुओं का अद्भुतत्व अथवा प्रस्तुत वस्तुओं के साथ उनके सादृश्य या संबंध की अनहोनी या दूरारूढ़ कल्पना ( जैसे उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि में ) इत्यादि बातें आती हैं।

चमत्कार का प्रयोग भावुक कवि भी करते हैं, पर किसी भाव की अनुभूति को तीव्र करने के लिये। जिस रूप या जिस मात्रा में भाव की स्थिति है उसी रूप और उसी मात्रा में उसकी व्यंजना के लिये प्रायः कवियों को व्यंजना का कुछ असामान्य ढंग पकड़ना पड़ता है। बातचीत में भी देखा जाता है कि कभी कभी हम किसी को मूर्ख न कहकर 'बैल' कह देते हैं। इसका मतलब यही है कि उसकी मूर्खता की जितनी गहरी भावना मन में है वह 'मूर्ख' शब्द से नहीं व्यक्त होती । इसी बात को देखकर कुछ लोगों ने यह निश्चय किया कि यही चमत्कार या उक्तिवैचित्र्य ही काव्य का नित्य लक्षण है। इस निश्चय के अनुसार कोई वाक्य, चाहे वह कितना ही मर्मस्पर्शी हो, यदि उक्तिवैचित्र्यशून्य है तो काब्य के अंतर्गत न होगा और कोई वाक्य जिसमें किसी भाव या मर्म-विकार की व्यंजना कुछ भी न हो पर उक्तिवैचित्र्य हो, वह खासा काव्य कहा जायगा । उदाहरण के लिये पद्माकर का यह सीधा सादा वाक्य लीजिए-

नैन नचाय कही मुसकाय ‘लला फिर आइयों खेलन होरी' ।”

अथवा मंडन का यह सवैया लीजिए -

अलि |हौं तो गई जमुना-जल को, सो कहा कहौं, बीर ! बिपत्ति परी । महराय के कारी घटा उनई, इतनेई में गागर सीस धरी ।