पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/४६

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काव्य उपट्यो पग, घाट चढ्यो न गयो, कवि मंडन बँकै चिहाल गिरी। चिरजीवहु नंद को बारो अरी, गहि बाँइ गरीब ने ठाढ़ी करी ।। इसी प्रकार ठाकुर की यह अत्यंत स्वाभाविक वितर्कव्यंजना देखिए वा निरमोहिनि रूप की रासि जऊ उर हेतु न ठानति वैई । बार ईि बार बिलोकि घरी घरी सूरति त पहिचानति है है। ठाकुर या मन को परतीति है, जो वै सनेह न मानति हैं है । श्रावत हैं नित मेरे लिए, इतनो तो बिसेष कै जानति है ।। मंडन ने प्रेम-गोपन के जो वचन कहलाए हैं वे ऐसे ही हैं। जैसे जल्दी में स्वभावतः मुँह से निकल पड़ते हैं। उनमें विदग्धता की अपेक्षा स्वाभाविकता कहीं अधिक झलक रही है। ठाकुर के सवैये में भी अपने प्रेम का परिचय देने के लिये आतुर नए प्रेमी के चित्त के वितर्क की बड़े सीधे सादे शब्दों में, बिना किसी वैचित्र्य या लोकोत्तर चमत्कार के, व्यंजना की गई है। क्या कोई सहृद्य वैचित्र्य के अभाव के कारण कह सकता है। कि इनमें काव्यत्व नहीं है ? । अब इनके सामने उन केवल चमत्कारवाली उक्तियों का विचार कीजिए जिनमें कहीं कोई कवि किसी राजा की कीर्ति की धवलता चारों ओर फैलती देख यह आशंका प्रकट करता है कि कहीं मेरी स्त्री के बाल भी सफेद न हो जायँ' अथवा प्रभात होने पर कौवों के काइँ-कायँ का कारण यह भय बताता है कि कालिमा १ [ यथा यथा भोजयशो विवर्धते सितां त्रिलोकीमिव कर्तुमुद्यतम् , तथा तथा मे हृदयं विद्यते प्रियालकालाधवलत्वशङ्कया ।।. —भोजप्रबंध, ५६ ।]