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रस-मीमांसा

रस-मीमांसा उसकी तह में रहनेवाला भाव आच्छन्न नहीं हो जाता वहाँ भी काव्य ही माना जायगा । जैसे, देव का यह सवैया लीजिए-- साँसन ही में समीर गयो अरु आँसुन ही सब नीर गयो दुरि । तेज गयो गुन लै अपनो अरु भूमि गई तन की तनुता करि । देव जियै मिलि बेईं की आस कै, श्रासहु पास अकास रह्यो भरि । जा दिन ते मुख फेरि हरें हँसि हेरि हियो जो लियो हुरि जू हरि ।। सवैये का अर्थ यह है कि वियोग में उस नायिका के शरीर कों संघटित करनेवाले पंचभूत धीरे धीरे निकलते जा रहे हैं। वायु दीर्घ निःश्वासों के द्वारा निकल गई, जलतत्त्व सारा आँसुओं ही आँसुओं में ढल गया, तेज भी न रह गया—शरीर की सारी दीप्ति या कांति जाती रही, पार्थिव तत्व के निकल जाने से शरीर भी क्षीण हो गया; अब तो उसके चारों ओर आकाश ही आकाश रह गया है-चारों ओर शून्य दिखाई पड़ रहा है। जिस दिन से श्रीकृष्ण ने उसकी ओर मुँह फेरकर ताका है और मंद मंद हँसकर उसके मन को हर लिया है उसी दिन से उसकी यह दशा है। इस वर्णन में देवजी ने विरह की भिन्न भिन्न दशाओं में चार भूतों के निकलने की बड़ी सटीक उद्भावना की है। आकाश का अस्तित्व भी बड़ी निपुणता से चरितार्थ किया है। यमक, अनुप्रास आदि भी हैं। सारांश यह कि उनकी उक्ति में एक पूरी सावयव कल्पना है, मजमून की पूरी बंदिश हैं, पूरा चमत्कार या अनुठापन है। पर इस चमत्कार के बीच में भी विरह- बेदना स्पष्ट झलक रही है, उसकी चकाचौंध में अदृश्य नहीं हो गई है। इसी प्रकार मतिराम के इस सबैये की पिछली दो पंक्तियों में वर्षा के रूपक का जो व्यंग्य-चमत्कार है वह भाव- शबलता के साथ अनूठे ढंग से गुंफित है-