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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा औन तुव बानी स्वाति-वृंदन के चातक में, साँसन को भरिबो द्रुपदजा को चीर भो । हिंय को हरष मरु घरनि को नीर भो, री ! जियरो मनोभव-सरन को तुनीर भो । एरी ! बेगि करिकै मिलापु थिर थापु, न तौ अापु अब चइत अतनु को सरीर भो ।। ऐसी ही भावप्रेरित वक्रता द्विजदेव की इस मनोहर उक्ति में हैतु जो कही, सखि ! लोनो सरूप, सो मो अँखियान को लोनी गई लगि । प्रेम के रफुरण की विलक्षण अनुभूति नायिका को हो रही है-कभी आँसू आते हैं, कभी अपनी दशा पर आप अचरज होता है, कभी हलकी सी हँसी भी आ जाती है कि अच्छी बला मैंने मोल ली। इसी बीच अपनी अंतरंग सखी को सामने पाकर किंचित विनोद-चातुरी की भी प्रवृत्ति होती है। ऐसी जटिल अंतर्वृत्ति द्वारा प्रेरित उक्ति में विचित्रता आ ही जाती है। ऐसी चित्त-वृत्तियों के अवसर घड़ी घड़ी नहीं आया करते । सुरदासजी का 'भ्रमरगीत' ऐसी भाव-प्रेरित वक्र उक्तियों से भरा पड़ा है। उक्ति की वहीं तक वचनभंग या वक्रता के संबंध में हमसे कुंतलजी का ‘वक्रोक्तिः काव्यजीवितम् मानते बनता है, जहाँ तक कि वह भावानुमोदित हो या किसी मार्मिक अंतर्वृत्ति से संबद्ध हो ; उसके आगे नहीं। कुंतलजी की वक्रता बहुत व्यापक है जिसके अंतर्गत वै वाक्य-वैचित्र्य की वक्रता और वस्तु-वैचित्र्य की वक्रता दोनों लेते हैं। सालंकृत वक्रता के चमत्कार ही में वे काव्यत्व मानते हैं। योरप में भी आजकल क्रोस के प्रभाव से एक प्रकार का वक्रोक्तिवाद जोर पर है । विलायती वक्रोक्तिवाद लक्षणा-प्रधान है। लाक्षणिक चपलता