पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रस-मीमांसा

४६
 


रस-मीमांसा मार्मिक प्रभाव उत्पन्न करना होता है तब वह इसी पद्धति का अवलंबन करता है। यदि अपनी पत्नी पर अत्याचार करनेवाले किसी व्यक्ति को उसे समझाना है तो वह कहेगा कि 'तुमने इसका हाथ पकड़ा है'; यह न कहेगा कि 'मतुमने इसके साथ विवाह किया है'। 'विवाह' शब्द के अंतर्गत न जाने कितने विधि-विधान हैं जो सबके सब एकबारगी मन में आ भी नहीं सकते और उतने व्यंजक यो मर्मस्पर्शी भी नहीं होते । अतः कहनेवाला उनमें से जो सबसे अधिक व्यंजक और स्वाभाविक व्यापार 'हाथ पकड़ना' है, जिससे सहारा देने का चित्र सामने आता है, उसे भावना में लाता है।

तीसरी विशेषता कविता की भाषा में वर्ण-विन्यास की हैं । 'शुष्को वृत्तस्तिष्ठत्यर्गे' और 'नीरसतरुरिह विलसति पुरतः' का भेद हमारी पंडित-मंडली में बहुत दिनों से प्रसिद्ध चला आता है। काव्य एक बहुत हीं व्यापक कला है। जिस प्रकार मूर्त विधान के लिये कविता चित्र-विद्या की प्रणाली का अनुसरण करती है उसी प्रकार नाद-सौष्ठव के लिये वह संगीत का कुछ कुछ सहारा लेती है। श्रुति-कटु मानकर कुछ वर्णो का त्याग, वृत्तविधान, लय, अंत्यानुप्रास आदि नाद -सौंदर्य साधन के लिये ही हैं। नाद-सौष्ठव के निमित्त निरूपित वर्णविशिष्टता को हिंदी के मारे कुछ पुराने कवि इतनी दूर तक घसीट ले गए कि उनकी बहुत सी रचना बेडौल और भावशून्य हो गई। उसमें अनुप्रास की लंबी लड़ी-वर्ण-विशेष की निरंतर आवृत्ति-के सिंबा और किसी बात पर ध्यान नहीं जाता। जो बात भाव या रस की धारा का मन के भीतर अधिक प्रसार करने के लिये थी, वह अलग चमत्कार या तमाशा खड़ा करने के लिये काम में लाई गई।