पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४७
 

काव्य


काय नाद-सौंदर्य से कविता की आयु बढ़ती है। तालपत्र, भोजपत्र, कागज आदि का आश्रय छूट जाने पर भी वह बहुत दिनों तक लोगों की जिह्वा पर नाचती रहती हैं। बहुत सी उक्तियों को लोग, उनके अर्थ की रमणीयता इत्यादि की ओर ध्यान ले जाने का कष्ट उठाए बिना ही, प्रसन्न-चित्त रहने पर गुनगुनाया करते हैं। अतः नाद-सौंदर्य का योग भी कविता का पूर्ण स्वरूप खड़ा करने के लिये कुछ न कुछ आवश्यक होता हैं। इसे हम बिल्कुल हटा नहीं सकते। जो अंत्यानुप्रास को फालतू समझते हैं वे छंद को पकड़े रहते हैं, जो छंद को भी फालतू समझते हैं वे लय में ही लीन होने का प्रयास करते हैं। संस्कृत से संबंध रखने वाली भाषाओं में नाद-सौंदर्य के समावेश के लिये बहुत अवकाश रहता है। अतः अँगरेजी आदि अन्य भाषाओं की देखादेखीं, जिनमें इसके लिये कम जगह है, अपनी कविता को हम इस विशेषता से वंचित कैसे कर सकते हैं ?

हमारी काव्यभाषा में एक चौथी विशेषता भी है जो संस्कृत से ही आई है। वह यह है कि कहीं कहीं व्यक्तियों के नामों के स्थान पर उनके रूप, गुण या कार्य-बोधक शब्दों का व्यवहार किया जाता है। ऊपर से देखने में तो पद्य के नपे हुए चरणों में शब्द खपाने के लिये ही ऐसा किया जाता है, पर थोड़ा विचार करने पर इससे गुरुतर उद्देश्य प्रकट होता है। सच पूछिए तो यह बात कृत्रिमता बचाने के लिये की जाती है। मनुष्यों के नाम यथार्थ में कृत्रिम संकेत हैं, जिनसे कविता की पूर्ण परिपोषकता नहीं होती। अतएव कवि मनुष्यों के नामों के स्थान पर कभी कभी उनके ऐसे रूप, गुण या व्यापार की ओर इशारा करता है जो स्वाभाविक और अर्थगर्भित होने के कारण सुननेवाले की भावना के निर्माण में योग देते हैं। गिरिधर,