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रस-मीमांसा


रस-मीमांसा मुरारि, त्रिपुरारि, दीनबंधु, चक्रपाणि, मुरलीधर, सव्यसाची इत्यादि शब्द ऐसे ही हैं ।

ऐसे शब्दों को चुनते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे प्रकरण-विरुद्ध या अवसर के प्रतिकूल न हों। जैसे, यदि कोई मनुष्य किसी दुर्धर्ष अत्याचारी के हाथ से छुटकारा पाना चाहता हो तो उसके लिये 'हे गोपिकारमण! हे वृंदावन-विहारी !' आदि कहकर कृष्ण को पुकारने की अपेक्षा 'हे मुरारि ! हे कंसनिकंदन !' आदि संबोधनों से पुकारना अधिक उपयुक्त है; क्योंकि श्रीकृष्ण के द्वारा कंस आदि दुष्टों का मारा जाना देखकर उसे उनसे अपनी रक्षा की आशा होती हैं न कि उनका वृंदावन में गोपियों के साथ विहार करना देखकर । इसी तरह किसो

आपत्ति से उद्धार पाने के लिये कृष्ण को "मुरलीधर' कहकर पुकारने की अपेक्षा 'गिरिधर' कहना अधिक अर्थ संगत है।

अलंकार

कविता में भाषा की सब शक्तियों से काम लेना पड़ता है। वस्तु या व्यापार की भावना चटकीली करने और भाव को अधिक उत्कर्ष पर पहुँचाने के लिये कभी किसी वस्तु का आकार या गुण बहुत बढ़ाकर दिखाना पड़ता है; कभी उसके रूपरंग या गुण की भावना को उसी प्रकार के और रूपरंग मिलाकर तीव्र करने के लिये समान रूप और धर्म वाली और-और वस्तुओं को सामने लाकर रखना पड़ता हैं। कभी कभी बात को भी घुमा-फिराकर कहना पड़ता हैं। इस तरह के भिन्न भिन्न विधान और कथन के ढंग अलंकार कहलाते हैं। इनके सहारे से कविता अपना प्रभाव बहुत कुछ बढ़ाती है। कहीं कहीं तो इनके बिना काम