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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा घंटा लसत, दूर की सूझ चाहे प्रकट हो, पर प्रस्तुत सौंदर्य की भावना की कुछ भी पुष्टि नहीं होती। पर जो लोग चमत्कार ही को काव्य का स्वरूप मानते हैं वे अलंकार को काव्य का सर्वस्व कहा ही चाहें । चंद्रालोककार तो कहते हैं कि अङ्गीकरोति यः काव्यं शब्दार्थविनलङ्कती । असौ न मन्यते करमादनुष्णमनलं कृती ।। भरतं मुनि ने रस की प्रधानता की ओर ही संकेत किया था; पर भामह, उद्भट आदि कुछ प्राचीन आचार्यों ने वैचित्र्य का पल्ला पकड़ अलंकारों को प्रधानता दी। इनमें बहुतेरे प्राचार्यों ने अलंकार शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में—स, रीति, गुण आदि काव्य में प्रयुक्त होनेवाली सारी सामग्री के अर्थ में किया है। पर क्यों ज्यों शास्त्रीय विचार गंभीर और सूक्ष्म होता गया त्यों त्यों साध्य और साधनों को विविक्त करके काव्य के नित्य स्वरूप या मर्म-शरीर को अलग निकालने का प्रयास बढ़ता गया। रुद्रट और मम्मट के समय से ही काव्य का प्रकृत स्वरूप उभरते उभरते विश्वनाथ महापात्र के साहित्यदर्पण में साफ ऊपर आ गया। प्राचीन गड़बड़झाला मिटे बहुत दिन हो गए। वर्य वस्तु और बर्णन-प्रणाली बहुत दिनों से एक दूसरे से अलग कर दी गई है। प्रस्तुत प्रस्तुत के भेद ने बहुत सी बातों के विचार और निर्णय के सीधे रास्ते खोल दिए हैं। अब यह स्पष्ट हो गया है कि अलंकार प्रस्तुत या वयं वस्तु नहीं, बल्कि वर्णन की भिन्न भिन्न प्रणालियाँ हैं, कहने के खास खास ढंग हैं। पर प्राचीन अव्यवस्था के स्मारक-स्वरूप कुछ अलंकार ऐसे चले आ