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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा वस्तु की रूप-क्रिया आदि के वर्णन को रस-क्षेत्र से घसीटकर अलंकार-क्षेत्र में हम कभी नहीं ले जा सकते । मुम्मट ही के ढंग के और आचार्यों के लक्षण भी हैं। अलंकार-सर्वस्व-कार राजनक स्य्यक कहते हैं । सूक्ष्म-वस्तु-स्वभाव-यथोवद्र्शनं स्वभावोक्तिः । | आचार्य दंडी ने अवस्था की योजना करके यह लक्ष। लिखा है नानावस्थे पदार्थानां साक्षाद्विवृण्वती । स्वभावोक्तिश्च जातिश्चेत्याद्या सालंकृतिर्यथा ॥ बात यह है कि स्वभावोक्ति अलंकारों के भीतर आ ही नहीं सकती। वक्रोक्तिवादी कुंतल ने भी इसे अलंकार नहीं माना है। जिस प्रकार एक कुरूपा स्रो अलंकार लादकर सुंदर नहीं हो सकती है उसी प्रकार प्रस्तुत वस्तु या तथ्य की रमणीयता के अभाव में अलंकारों का ढेर काव्य का सजीव स्वरूप नहीं खड़ा कर सकता। केशवदास के पचीसों पद्य ऐसे रखे जा सकते हैं जिनमें यहाँ से वहाँ तक उपमाएँ और उत्प्रेक्षाएँ भरी हैं, शब्द• साम्य के बड़े बड़े खेल-तमाशे जुटाए गए हैं, पर उनके द्वारा कोई मार्मिक अनुभूति नहीं उत्पन्न होती। उन्हें कोई सहृद्य या भावुक काव्य न कहेगा । आचार्यों ने भी अलंकारों को ‘काव्यशोभाकर, शोभातिशायी' आदि ही कहा है। महाराज भोज भी अलंकार को ‘अलमर्थमलंकः ' ही कहते हैं। पहले से सुंदर अर्थ को ही अलंकार शोभित कर सकता है। सुंदर अर्थ की शोभा बढ़ाने में जो अलंकार प्रयुक्त नहीं वे काव्यालंकार नहीं। वे ऐसे ही हैं जैसे शरीर पर से उतारकर किसी अलग कोने में रखा हुआ गहनों का ढेर। किसी भाव या मार्मिक भावना से