पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/६८

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काव्य के विभाग ५६ सिद्ध स्वरूप या उपभोग-पक्ष में ही अपनी वृत्ति रमा सकते हैं। उनका मन सदा सुख-सौंदर्यमय माधुर्य, दीप्ति, उल्लास, प्रेम-क्रीड़ा इत्यादि के प्राचुर्य हो को भावना में लगता है। इसी प्रकार की भावना या कल्पना उन्हें कला-क्षेत्र के भीतर समझ पड़ती हैं । उपर्युक्त दृष्टि से हम काव्यों के दो विभाग कर सकते हैं| ( १ ) आनंद की साधनावस्था या प्रयत्न पक्ष को लेकर घलनेवाले। , (२) आनंद की सिद्धावस्था या उपभोग-पक्ष को लेकर चलनेवाले । इंटन ( Theodore Watts-Dunton ) ने जिसे शक्ति-काव्य ( Poetry as an energy ) कहा है वह हमारे प्रथम प्रकार के अंतर्गत आ जाता हैं जिसमें लोक-प्रवृत्ति को परिचालित करनेवाला प्रभाव होता है, जो पाठकों या श्रोताओं के हृदय में भावों की स्थायी प्रेरणा उत्पन्न कर सकता है। पर डंटन ने शक्ति-काव्य से भिन्न को जो कला-काव्य ( Poetry as an art ) कहा है वह कला का उद्देश्य केवल मनोरंजन मानकर । वास्तव में कला की दृष्टि दोनों प्रकार के काव्यों में अपेक्षित है। साधनावरथा या प्रयत्न-पक्ष को लेकर चलने वाले काव्यों में भी यदि कला में चूक हुई तो लोकगति को परिचालित करनेवाला स्थायी प्रभाव न उत्पन्न हो सकेगा । यहीं तक नहीं; व्यंजित भावों के साथ पाठकों की सहानुभूति या साधारणीकरण तक, जो रस की पूर्ण अनुभूति के लिये आवश्यक है, न हो सकेगा। यदि ‘कला' का वही अर्थ लेना है जो कामशास्त्र की चौंसठ कलाओं में है-अर्थात् मनोरंजन या उपभोग मात्र का विधायक १ [ देखिए पोयट्री एंड दि रिनेस व् वंडर।]