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रस-मीमांसा

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रस-मीमांसा कृष्ण जैसे पराक्रमशाली और धीर हैं वैसा ही उनका रूप-माधुर्य और उनका शील भी लोकोत्तर हैं। लोक-हृदय आकृति और गुण, सौंदर्य और सुशीलता, एक ही अधिष्ठान में देखना चाहता है। इसी से “यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति' सामुद्रिक की यह उक्ति लोकोक्ति के रूप में चल पड़ी। 'नैषध में नल हंस से कहते हैं न तुला-विषये तवाकृतिनं वचो वर्मनिं ते सुशीलता । दबदुदाहरणाऽकृतौ गुणा इति सामुद्रिक-सार-मुद्रा ।।' | [ नैषधीय चरित, द्वितीय सर्ग, ५। ] भीतरी और वाहुरी सौंदर्य, रूप-सौंदर्य और कर्म-सौंदर्य के मेल की यह आदत धीरोदात्त अादि भेद-निरूपण से बहुत पुरानी है और बिलकुल छूट भी नहीं सकती। यह हृदय की एक भीतरी वासना की तुष्टि के हेतु कला की रहस्यमयी प्रेरणा हैं। १६ वीं शताब्दी के कवि शेलो-जो राजशासन, धर्मशासन समाज-शासन आदि सब प्रकार की शासन-व्यवस्था के घर विरोधी थे-इस प्रेरणा से पीछा न छुड़ा सके। उन्होंने भी अपने प्रबंध-काव्यों में रूप-सौंदर्य और कर्म-सौंदर्य का ऐसा ही मेल किंया है। उनके नायक ( या नायिका ) जिस प्रकार पीड़ा, अत्याचार आदि से मनुष्य जाति का उद्धार करने के लिये अपना प्राण तक उत्सर्ग करनेवाले, घोर से घोर कष्ट और यंत्रणा से १ [ आपकी आकृति का न तो कोई उपमान है और न आपकी सुशीलता ही वाणी के पथ पर आ सकती–वारणी द्वारा कही जा सकती। ‘आकृति में गुणों का निवास होता है' सामुद्रिकशास्त्र-रहस्य के इस नियम के उदाहरण आप ही हैं ।]