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रस-मीमांसा

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  • रस मीमांसा

भी सुंदर होते हैं। ऐसे बीजभाव की प्रतिष्ठा जिस पात्र में होती है उसके सब भावों के साथ पाठकों की सहानुभूति होती है अर्थात् पाठक और श्रोता भी रसरूप में उन्हीं भावों का अनुभव करते हैं जिन भावों की वह व्यंजना करता है। ऐसे पात्र की गति में बाधा डालने वाले पात्रों के नग्न या तीक्ष्ण भावों के साथ पाठकों का वास्तव में तादात्म्य नहीं होता; चाहे उनकी व्यंजना में रस का निष्पत्ति करनेवाले तीनों अवयव वर्तमान हों। राम यदि रावण के प्रति क्रोध या घृणा की व्यंजना करेंगे तो पाठक या श्रोता का भी हृदय उस क्रोध या घृणा की अनुभूति में योग देगा । इस क्रोध या घृणा में भी काव्य का पूर्ण सौंदर्य होगा। पर रावण यदि राम के प्रति क्रोध या घृणा की व्यंजना करेगा तो रस के तीनों अवयवों के कारण “शास्त्र-स्थिति-सम्पादन चाहे हो जाय पर उस व्यजित भाव के साथ पाठक के भाव का तादात्म्य कभी न होगा, पाठक केवल चरित्र-द्रष्टा मात्र रहेगा। उसका केवल मनोरंजन होगा, भाव में लीन करनेवाली प्रथम कोटि की रसानुभूति उसको न होगी । | अपर कहा गया है कि किसी शुभ बीज भाव की प्रेरणा से प्रवर्तित तीक्ष्ण और उग्र भावों की सुंदरता की मात्रा उस बीजभाव की निर्विशेषता और व्यापकता के अनुसार होती हैं। जैसे, यदि करुणा किसी व्यक्ति की विशेषता पर अवलंबित होगी–कि पीड़ित व्यक्ति हमारा कुटुंबी, मित्र आदि है तो उस करुणा के द्वारा प्रवर्तित तीक्ष्ण या उग्र भावों में उतनी

  • रसव्यक्तिमपेक्ष्यैषामङ्गानां सन्निवेशनम् । न त केबलया शा-स्थिति-सम्पादनेछया ॥

-साहित्यदर्पण [ ६-१२० । ] ।