पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/७८

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काव्य के विभाग सुंदरता न होगी। पर बीजरूप में अंतस्संज्ञा में स्थित करुणा यदि इस ढब की होगी कि इतने पुरवासी, इतने देशवासी या इतने मनुष्य पीड़ा पा रहे हैं तो उसके द्वारा प्रवर्तित तीक्ष्ण या “उग्र भाबों का सौंदर्य उत्तरोत्तर अधिक होगा। यदि किसी काव्य में वर्णित दो पात्रों में से एक तो अपने भाई को अत्याचार और पीड़ा से बचाने के लिये अग्रसर हो रहा है और दूसरा किसी बड़े भारी जनसमूह को, तो गति में बाधा डालनेवालों के प्रति दोनों के प्रदर्शित क्रोध के सौंदर्य के परिमाण में बहुत अंतर होगा। | भावों की छानबीन करने पर मंगल का विधान करनेवाले दो भाव ठहरते हैं-करुणा और प्रेम । करुणा की गति रक्षा की ओर होती है और प्रेम की रंजन की ओर । लोक में प्रथम साध्य रक्षा है। रंजन का अवसर उसके पीछे आता है । अतः साधनावस्था या प्रयत्न पक्ष को लेकर चलनेवाले काव्यों का बीजभाव करुणा ही ठहरता है। इसी से शायद अपने दो नाटकों मैं रामचरित को लेकर चलनेवाले महाकवि भवभूति ने ‘करुण' को ही एकमात्र रस कह दिया।' रामायण का बीजभाव करुणा है जिसका संकेत क्रौंच को मारनेवाले निषाद के प्रति वाल्मीकि के मुहँ से निकले वचन द्वारा प्रारंभ ही में मिलता है। उसके उपरांत भी बालकांड के १५ वें सर्ग में इसका आभास दिया गया है जहाँ देवताओं ने ब्रह्मा से रावण-द्वारा पीड़ित लोक की १ [एको रसः करुण एब निमित्तभेदात् भिन्नः पृथक् पृथगबाश्रयते विवर्त्तन् । आवर्त्तबुदबुतरङ्गमयान् विकारान् । अम्भो यथा सलिलमेव हि तत्समस्तम् ।। -उत्तररामचरित, ३-४७।]