पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/८०

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और अत्याचार देख पुनीत क्रोध के सात्विक तेज से तमतमानेवाले, भय या स्वार्थवश आततायियों की सेवा स्वीकार करने वालों के प्रति उपेक्षा प्रकट करनेवाले हैं। शेली ने भी काव्य-कला का मूलतत्त्व प्रेमभाव ही माना था पर अपने को सुख-सौंदर्य-मय माधुर्य भाव तक ही बद्ध न रखकर प्रबंधक्षेत्र में भी अच्छी तरह घुसकर भावों की अनेकरूपता को विन्यास किया था। स्थिर (Static ) सौंदर्य और गत्यात्मक (Dynamic) सौंदर्य, उपभोगपक्ष और प्रयत्न-पक्ष, दोनों उनमें पाए जाते हैं।

टाल्सटाय के मनुष्य मनुष्य में भ्रातृ-प्रेम-संचार को ही एकमात्र काव्यतत्व कहने का बहुत कुछ कारण सांप्रदायिक था। इसी प्रकार कलावादियों का केवल कोमल और मधुर की लीक पकड़ना मनोरंजन मात्र की हलकी रुचि और दृष्टि की परिमिति के कारण समझना चाहिए। टाल्सटाय के अनुयायी प्रयत्न-पक्ष को लेते अवश्य हैं पर केवल पीड़ितों की सेवा-शुश्रुषा की दौड़धूप, आततायियों पर प्रभाव डालने के लिये साधुता के लोकोत्तरप्रदर्शन, त्याग, कष्ट-सहिष्णुता इत्यादि में ही उसका सौंदर्य स्वीकार करते हैं। साधुता की इस मृदुल गति को वे 'आध्यात्मिक शक्ति' कहते हैं। पर भारतीय दृष्टि से हम इसे भी प्राकृतिक शक्ति-मनुष्य की अंत:प्रकृति की सात्विक विभूति-- मानते हैं। विदेशी अर्थ में इस 'अध्यात्मिक' शब्द का प्रयोग हमारी देशभाषाओं में भी प्रचार पा रहा है। अध्यात्म' शब्द की, मेरी समझ में, काव्य या कला के क्षेत्र में कहीं कोई जरूरत नहीं है।

पूर्ण प्रभविष्णुता के लिये काव्य में हम भी सत्वगुण की सत्ता आवश्यक मानते हैं, पर दोनों रूपों में - दूसरे भावों की तह् में अर्थात् अंतरसंज्ञा में स्थित अव्यक्त बीजरूप में भी और अकाशरूप में भी। हम पहले कह आए हैं कि लोक में मंगल<br>