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रस-मीमांसा

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  • रस-मीमांसा

विधान की ओर प्रवृत्त करनेवाले दो भाव हैं-करुणा और प्रेम ।। यह भी दिखा आए हैं कि क्रोध, युद्धोत्साहू आदि प्रचंड और उग्र वृत्तियों की तह में यदि इन दोनों में से कोई भाव बीजरूप में स्थित होगा तभी सच्चा साधारणीकरण और पूर्ण सौंदर्य का प्रकाश होगा। इञ्च दशा का प्रेम और करुणा दोनों सत्वगुणप्रधान हैं। त्रिगुणों में सत्वगुण सबके ऊपर है। यहाँ तक कि उसकी ऊपरी सीमा नित्य पारमार्थिक सत्ता के पास तकव्यक्त और अव्यक्त की संधि तक जा पहुँचती है । इसी से शायद वल्लभाचार्यजी ने सच्चिदानंद के सत् स्वरूप का प्रकाश करनेवाली शक्ति को ‘संधिनी' कहा हैं। व्यवहार में भी ‘सत्' शब्द के दो अर्थ लिए जाते हैं जो वास्तव में हो,तथा 'अच्छ। यो शुभ । जब कि अव्यक्तावस्था से छूटी हुई प्रकृति के व्यक्त स्वरूप जगत् में आदि से अंत तक सत्व, रज और तमस् तीनों गुण रहेंगे तब समष्टि रूप में लोक के बीच मंगल का विधान करने वाली ब्रह्म की आनंद-कला के प्रकाश की यही पद्धति हो सकती है कि तमोगुण और रजोगुण दोनों सत्वगुण के अधीन होकर उसके इशारे पर काम करें। इस दशा में किसी और अपनी प्रवृत्ति के अनुसार काम करने पर भी समष्टि रूप में और सब ओर वे सत्वगुण के लक्ष्य की ही पूर्ति करेंगे। सत्त्वगुण के इस शासन में कठोरता, उग्रता और प्रचंडता भी सात्त्विक तेज़ के रूप में भासित होंगी । इसी से अवतार-रूप में हमारे यहाँ भगवान् की मूर्ति एक ओर तो 'वज्रादपि कठोर और दूसरी ओर 'कुसुमादपि मृदु रखी गई है कुलिसहु चाहि कठोर अति, कोमल कुसुमहु चाहि ।