पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

साधना या प्रयत्न में तत्पर करने के लिये फल की सुंदरता या सुखदता की पूर्ण भावना जागरित करने की आवश्यकता हुआ करती है। साध्य आनंद की प्रचुरता तथा उस आनंद के विषय की सुंदरता या सुदुता हमारे मन में जितना ही घर करेगी उतनी ही अधिक तन्मयता के साथ हम उस आनंद तथा उसके विषय तक पहुँचानेवाली साधना में प्रवृत्त होंगे। एक बहुत ही ऊँचे प्रकार का सुख देनेवाली वस्तु का नाम सुंदरता है। लड्डु खाना, इत्र सुँघना, मुलायम गद्दे पर सोना, कोमल संगीत सुनैना, सुंदर रूप देखना- ये सब सुखद होते हैं। इनमें से पिछली दो बातों का सुख पहली तीन बातों के सुख से ऊँचे दरजे का जान पड़ता है। कारण विचारने पर यही सुझाई पड़ता है कि आँख और कान दोनों का ज्ञान-व्यापार में प्रधान योग रहता है। अतः इनका सुख शेष और इंद्रियों के सुखों से ऊँचे दरजे का होना चाहिए। वास्तव में यदि यह सुख अपने शुद्ध रूप में रखा जाय, और प्रकार के स्थूल सुखों से मिलाया न जाय, तो ऊँचा जरूर दिखाई देता है।

दर्शन-वृत्ति की बोध दशा भी होती है और रागात्मिका दशा भी। नई वस्तुओं को देखकर जानकारी भी हो सकती है, प्रेम, क्रोध आदि भी । मन की दर्शन-वृत्ति की रागात्मिका दशा ही सौंदर्य की अनुभूति कहलाती है। जो सुदर्शन हो, जिसकी आकृति रुचिकर हो, वहीं सुंदर होता है यद्यपि इस शब्द का प्रयोग लक्षण से और विस्तृत अर्थ में भी किया जाता है। उदाहरण के लिये कर्म-सौंदर्य' शब्द लीजिए जिसका<br>