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रस-मीमांसा



व्यवहार हमने अन्यत्र अनेक स्थलों पर किया है। रूप-सौंदर्य से मध्यम कोटि की वस्तु नाद-सौंदर्य या शब्द-माधुर्य है। जिस प्रकार दर्शन-वृत्ति की बोध-दशा और रागात्मिका दशा-ये दो दशाएँ होती हैं, उसी प्रकार श्रवण-वृत्ति की भीं । शब्द द्वारा ज्ञान-संचार और माधुर्य-संचार दोनों होते हैं। वार्तालाप, उपदेश, व्याख्यान इत्यादि में शब्द द्वारा हमें नई नई बातों की जानकारी होती है; संगीत में हमें शब्द द्वारा माधुर्य की अनुभूति होती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि नाद के संबंध में 'सुंदर', 'मधुर', 'कोमल' आदि शब्दों का प्रयोग भी लाक्षणिक ही होता है। शास्त्रीय दृष्टि से इस प्रकार के लाक्षणिक प्रयोग भाषा की त्रुटि सूचित करते हैं। श्रवण के विषय शब्द की रुचिरता के लिये यदि कोई अलग शब्द होता तो दर्शनेंद्रिय, रसनेंद्रिय और त्वगिंद्रिय की अनुभूतियों से लिए हुए ‘सुंदर', 'मधुर' और 'कोमल' शब्द अधिकतर कवियों और साहित्य समीक्षकों के ही काम में आते।

रूप और गति दोनों दृष्टि के विषय हैं। अतः दर्शन-वृत्ति को तुष्ट करनेवाले दो प्रकार के विषय ठहरते हैं-रूप और गति । प्रयत्न पक्ष में गति की रुचिरता का वर्णन साधनावस्था के अंतर्गत हो चुका है। नृपभोग-पक्ष में गति की रुचिरता हमें नृत्यकला आदि में दिखाई पड़ती है। इस प्रकार दर्शन और श्रवण दोनों के उपभोग-पक्ष को लेकर कई कलाओं का प्रादुर्भाव हुआ-दर्शन की तुष्टि के लिये चित्रकला, मूर्तिकला और नृत्यकला का; श्रवण की तुष्टि के लिये संगीत का। काव्य का इतना व्यापक विधान होता है कि उसमें इन सबका थोड़ा बहुत योग रहा करता है। पर इससे यह न समझना चाहिए कि उपभोग<br>