पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/८४

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काव्य के विभाग पक्ष की तुष्टि ही काव्य का एकांत लक्ष्य है। रसात्मक तुष्टि का क्षेत्र उपभोग-वृत्ति से और आगे तक है, यह बात साधनावस्था के अंतर्गत कही जा चुकी है। गोस्वामी तुलसीदास जी का ‘रामचरितमानस मनोरंजन करके या जी बहलाकर ही नहीं रह जाता। वह हृद्य के मूल में सत्व की ज्योति जगाता है । पर यहाँ हमें उस काव्यभूमि का वर्णन करना है जिसमें ‘अानंद' अपनी सिद्धावरथा में दिखाई पड़ता है; जहाँ सब प्रकार के प्रयत्नों की अशांति तिरोहित और उपभोग की कला जगी रहती हैं। 'आनंद' का ध्वज यहाँ चलता नहीं दिखाई पड़ता, गड़ा दिखाई पड़ता है। यहाँ नगाड़े की धमक, गर्जनतर्जन और हुंकार नहीं, विसव, ध्वंस और हाहाकार नहीं; बेग और तेज की तिग्मिता नहीं। यह दीप्ति, माधुर्य और कोमलता की स्निग्ध भूमि है, लहलहाते सरस प्रसार और परिमलघटित पुष्पहास का कलकंठ-कूजित क्षेत्र है; मद और उल्लास की मृदुल-तरंगमयी संगीत-धारा का मानस लोक है । इस भूमि का प्रवर्तक भाव हैं—प्रेम ।। देश के विस्तार और काल की दौड़ के बीच ऐसी भूमियाँ कहीं कहीं और कभी कभी मिल जाया करती हैं। सच पूछिए तो मनुष्य अपने जीवन-पथ पर इन्हीं के लोभ में बराबर दौड़ता चला जाता है * । यही तक नहीं; “सुगुन-छीर' और 'अवगुन Many a green isle needs must be In the deep wide sea of misery; Or the mariner warn and wan, Never thus could voyage on. -Shelley.