पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
७४
रस-मीमांसा



जल' मिले इस महा प्रपंच से कल्पना द्वारा इन्हें अलग करके वह एक निराला आनंद-लोक खड़ा करता है जो शुष्क धार्मिको का स्वर्ग और कवियों का स्वप्न ठहरता है। जिनके भीतर सत्त्व की ज्योति अत्यंत क्षीण या मंद होती हैं, जिन्हें धर्म के सौंदर्य का साक्षात्कार नहीं होता, जिनका मन कर्म की भावना में न लगकर फल ही की भावना में लगता है, वे इसी स्वर्ग की कामना से बहुत से गिनाए हुए पुण्य कार्य, बिना उनके संपादन का प्रकृत सुख अनुभव किए, यों ही रूखे सूखे ढंग से करते पाए जाते हैं।

ऊपर कह आए हैं कि उस काव्य-भूमि में जहाँ आनंद अपनी सिद्धावस्था में दिखाई पड़ता है प्रवर्तक भाव है-प्रेम । इसी भाव के विविध प्रकार के आलंबनों और उद्दीपनों का चित्रण इस भूमि के विभाव-पक्ष में पाया जाता है। दीप्ति, माधुर्य और कोमलता के नाना रूप यहाँ मिलते हैं। बाहर नयनाभिराम रूपरेखा, विकसित वर्ण-वैचित्र्य, दीप्ति-विभूतिप्रभूत चमक-दमक, शीतल स्निग्ध छाया, कलकंठ-स्वर-रपंदितसौरभ-समन्वित समीर, रिमत आनन, चपल भ्रूविलास, हासपरिहास, संगीतसज्जा, वीणा की झंकार इत्यादि हैं तो भीतर सौंदर्य की मादक अनुभूति, प्रेमोल्लास, स्वप्न, स्मृति-विस्मृति, व्रीडा- क्रीड़ा, दर्शन-पिपासा, उत्कंठा, मुग्धता इत्यादि ।

इस भूमि के मानस या आभ्यंतर पक्ष की एक खासी उलझन हमारे पुराने आचार्य सुलझा गए हैं। यद्यपि प्रेम दशा के भीतर सुखात्मक और दुःखात्मक दोनों प्रकार के भाव पाए जाते हैं पर कान में ‘प्रेमानंद' शब्द ही पड़ता है, ‘प्रेमापन्न' नहीं। इससे ‘प्रेम आनंद स्वरूप है।' यह लोक-धारणा प्रकट होती है, जो<br>