पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/८६

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काव्य के विभाग ७५ साहित्य-मीमांसकों को भी मान्य है। वियोग काल की सारी अश्रुधारा इस आनंद-स्वरूप को नहीं धो सकती ; अश्रुधारा के तल में आनंद की रेखाएँ दिखाई पड़ती रहती हैं। विरह में आनंद नष्ट नहीं हुआ रहता, केवल 'आवृत' रहता है। विद्दियों का रोना एक प्रकार का हँसना ही है। उनके तीव्र ताप और प्रचंड ज्वाला की जड़ में एक समय शीतलता रहती है जब तक प्रिय इस जगत् में रहता है तब तक उसके कहीं दूर चले। जाने पर भी, उसका कहीं पता न रहने पर भी, जो दुःख और वेदना होती है वह प्रेम भाव की ही अनुभूति समझी जाती हैं और साहित्य में विप्रलंभ श्रृंगार के ही अंतर्गत मानी जाती है। बात यह है कि वियोग-काल चाहे कितना ही दारण हो इसके बीच बीच में मिलने की लालसा जगती रहती है, संयोग की कल्पना के सुख का अनुभव होता रहता है, प्रिय के रूप आदि का ध्यान आने पर मन लुभाता रहता है। यह लालसा या यह लुब्धता, आनंद के ढंग की चीज है, दुःख के ढंग की नहीं है। आनंद के रूप में ही प्रेम का उदय होता है और उसका यह भीतरी रूप बराबर बना रहता है। किसी के रूप सौंदर्यः और शील-सौंदर्य का पहले-पहल साक्षात्कार या परिचय होते ही सबसे पहलो अनुभूति आनंद की होती है। सबसे पहले हृदय विकसित और लुब्ध होता है । सारांश यह कि प्रेमकाल जीवन का आनंदकाल ही हैं। इसी से भक्तिमार्ग में वल्लभाचार्यजी ने भक्ति या प्रेम हो को साध्य कह दिया है । | प्रेम वास्तव में राग का ही पूर्ण विकसित रूप हैं। राग और द्वेष दोनों की स्थिति वासना के रूप में प्रत्येक प्राणी में होती हैं। वासनात्मक अवस्था में इन दोनों के विषय सामान्य रहते हैं। सामान्यतः सुख देनेवाली या चिरकाल से साथ